रवींद्र का दलित विमर्श-23
संविधान बदलकर मनुस्मृति बहाली के हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ आदिवासी किसानों के प्रतिरोध की विरासत में रवींद्र रचनाधर्मिता!
रवींद्र उस भारतवर्ष के प्रतीक है कारपोरेट डिजिटल इंडिया का नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व जिसकी रोज हत्या कर रहा है।
ब्रह्म समाज आंदोलन और औपनिवेशिक ब्रिटिश राज से भी पहले पठान मुगल इस्लामी राजकाज के दौरान समाज सुधार आंदोलनों नवजागरण की चर्चा खूब होती रही है लेकिन जाति तोड़ो अस्मिता तोड़ो के एकीकरण के बहुजन आंदोलन,आदिवासी किसान जनविद्रोहों के सिलिसिले में बाउल फकीर आंदोलन और लालन फकीर कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी के रवींद्र संगीत के दलित विमर्श पर चर्चा कभी नहीं हुई है।
बहुजनों के असल नवजागरण के हिंदुत्वकरण के इसी धतकरम से नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के नस्ली राष्ट्रवाद का जन्म औद्योगिक उत्पादन प्रणाली और ब्रिटिश राज में बहुजनों को मिले हकहकूक की वजह से टूटती जाति व्यवस्था आधारित मनुस्मृति प्रणाली की बहाली के लिए हुआ।इसे समझे बिना नरसंहारी कारपोरेट फासिज्म का प्रतिरोध मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
पलाश विश्वास
कापीराइट मुक्त रवीद्रनाथ अब मुक्त बाजार के आइकन में तब्दील हैं।उनके वाणिज्यिक विपणन से उसी नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के राष्ट्रवाद को मजबूत किया जा रहा है जिसका रवींद्रनाथ आजीवन विरोध करते रहे हैं।
चर्यापद के बाद आठवीें सदी से लेकर ग्यारवीं सदी के इतिहास में भारत भर में शूद्रों आदिवासियों दलितों के इतिहास पर जिस तरह कोई चर्चा नहीं हुई है,जिस तरह परातत्व अनुसंधान और इतिहास पर वर्ग वर्ण वर्चस्व की वजह से हड़प्पा सिंधु सभ्यता और अनार्य द्रविड़ सभ्यता की निरंतरता और उसे जुड़ी आम भारतीयों की रक्तधारा के विलय के इतिहास को लगातार दबाया जाता रहा है,जिस तरह शासक वर्ग के इतिहास और साहित्य से किसान,आदिवासी और दलित शूद्र बहुजन सिरे से गायब हैं,उसी तरह भारत में आदिवासी किसानों के इतिहास को मिटाने का कार्यक्रम फासिज्म के सैन्य राष्ट्रवाद का एजंडा है और इसी एजंडे के तहत रवींद्र का भगवाकरण है तो रवींद्र के साहित्य के किसान आदिवासी दलित शूद्र आंदोलन,मेहनतकशों के हक हकूक,जल जंगल जमीन के प्रतिरोध संघर्षों की जमीन और रवींद्र के दलित विमर्श पर चर्चा निषिद्ध है।
इसीलिए दलितों,शूद्रों,स्त्रियों,बहुजनों,अल्पसंख्यकों,मेहनतकशों,किसानों और उत्पीड़न अत्याचार के खिलाफ समानता और न्याय के लिए सामंतवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद,ब्राह्मणवाद,मनुस्मृति व्यवस्था और नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के खिलाफ रवींद्र के आजीवन प्रतिबद्ध संघर्ष पर विमर्श का कोई स्पेस नहीं बना है।
साहित्य,संस्कृति,माध्यमों में सत्ता वर्ग के एकाधिकार के लिए हमें रवींद्र के दलित विमर्श पर संवाद की यह कोशिश इसीलिए सोशल मीडिया पर करनी पड़ रही है और तकनीक के जरिये इस वर्चस्ववाद के खिलाफ लड़ना पड़ रहा है।
अब अंदाजा लगाइये कि सत्ता वर्ग के निरंकुश वर्चस्व के खिलाफ मनुस्मृति के तहत सारे हकहकूक से वंचित बहुसंख्य बहुजन जन गण के लिए एक मुस्त दैवी सत्ता और राजसत्ता का विरोध कितना कठिन रहा होगा।
कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर की युगलबंदी से नील विद्रोह के समय ब्रहमसमाज और नवजागरण आंदोलन के दौरान बंगाल में किसानों और आदिवासियों के बहुजन आंदोलन और जनविद्रोहों की जमीन पर जो सक्रिय रचनाधर्मिता थी,उसके पीछे कोई तकनीक नहीं थी,जिसके तहत अगर कोई अकेला व्यक्ति भी साहस विवेक और जीजिविषा के साथ फासिज्म की निरंकुश सत्ता के खिलाफ रीढ़ सीधी करके वैसा ही उपक्रम करें तो सत्ता के वर्म वर्ग वर्चस्व की चूलें हिल जाये।
विडंबना यह है कि तकनीक का सत्ता वर्ग के हित में इस्तेमाल कर रहे हैं जूता व्यवस्था और गुलामगिरि की बहुजन सेनाएं और उनके मानस और विवेक का सिरे से भगवाकरण हो गया है जो आजादी से पहले कभी नहीं हुआ था।
रवींद्र च्रचा में गुरुदेव रवींद्रनाथ,भारतीय तपवन, वैदिकी साहित्य, उपनिषद ऋषिक्लप रवींद्रनाथ की आड़ में रवींद्र साहित्य में महाकवि कीट्स के शब्दों में वर्णित इगोस्टिक सब्लाइम और नेगेटिव कैपेबिलिटि के विलयन की प्रक्रिया को सिरे से नजरअंदाज किया जाता है,जो रवींद्र का समूचा जीवन वृत्तांत है।
अहम् और एकात्मता,व्यक्ति और समाज,व्यक्ति और परंपरा,व्यक्ति और समाज,समाज और इतिहास के सारे रंग और आयाम सत्ता वर्ग की व्याकरण विशुद्धता के कुलीन सौंदर्यबोध की वजह से साहित्य और संस्कृति के विमर्श से बाहर है और इसमें बोलियों,लोक और जनपदों के साथ साथ अस्पृश्यता के सिद्धांत के तहत आम जनता का पूरीतरह बहिस्कार है।
इसी वजह से शुरु से आखिर तक देश दुनिया के परिदृश्य में रवींद्र नाथ व्यक्ति और कवि की हैसियत से जिसतरह राजनैतिक आर्थिक सामाजिक समता औलर न्याय के लिए,औपनिवेशिक शासन की पराधीनता से भारतीय जनगण की स्वतंत्रता के लिए रचनात्मक तौर पर निरंतर सक्रिय रहे,जिसतर साम्राज्यवाद विरोधी,फासीवाद विरोधी युद्धविरोधी वैश्विक महासंग्राम में महात्मा गौतम बुद्ध के पंचशील के तहत राष्ट्रनेताओं और विश्वनेताओं के साथ साथ दुनियाभर के चितकों,बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों के साथ मोर्चाबंद रहे हैं,यह लोकसंस्कृति और बाउल फकीर सूफी संत वैष्णव गुरु परंपरा में उनकी जड़ें होने की वजह से है।
इन्हीं जड़ों को कोजने के सिलसिले में हम एक तरफ आदिवासी किसान आंदोलनों की विरासत की जांच पड़ताल कर रहे हैं,तो बहुजनों के नवजागरण की लोकसंस्कृति की साझा विरासत पर निरंतर फोकस बनाये हुए हैं और संदर्भ और प्रसंग की प्रासंगिकता के लिए समसामयिक मुद्दों और समस्याओं पर जनप्रतिरोध की जनपदीय लोकसंस्कृति की रोशनी में च्रचा भी कर रहे हैं।
लालन फकीर के बाद इसी सिलसिले में आज हम कंगाल हरिनाथ की चर्चा कर रहे हैं।लालन फकीर की रचनाओं के साथ साथ रवींद्र की रचनाधर्मिता पर बाउल फकीर सूफी संत आंदोलन की बौद्धमय विरास का गहरा असर रहा है,इसकी हम चर्चा करते रहे है।
इन्हीं लालन फकीर ने जाति तोड़ो आंदोलन बंगाल में शुरु किया था,जिसमें भारतीय ग्रामीण पत्रकारिता के भीष्म पितामह कंगाल हरिनाथ बाउल उनके अनुयायी और सहयोगी थे।जो नील की खेती कराने वाले किसानों के हक में अंग्रेजों से एकतरफ लोहा ले रहे थे तो दूसरी तरफ रवींद्र के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ की जमींदारी और बंगाल के जमींदारों,सामंतों के खिलाफ पत्रकारिता कर रहे थे और जाति तोड़ो आंदोलन के तहत बाउल गान बी रच रहे थे।
जमींदार सामंत भद्रलोक कुलीन वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श की जमीन यही है।इसीलिए शुरु से रवींद्रनाथ मनुसमृति व्यवस्था के निशाने पर हैं।
लालन फकीर जात पांत और धर्म की पहचान से इंकार कर रहे थे और उनके जाति तोड़ो आंदोलन से ब्रह्मसमाज में भी खलबली मची हुई थी।जाति तोड़ो आंदोलन बंगाल में तब वैष्णवों की गौर सभा भी चला रही थी और हरिचांद ठाकुर का मतुआ आंदोलन भी शुरु हो गया था।
संत कबीर की तरह सभी जाति धर्म के लोग लालन फकीर से प्यार करते थे तो सबी जाति धर्मों के कट्टरपंथी लोग उनका विरोध करते थे।हिंदू उन्हें हिंदू मानते थे तो मुसलमान उन्हें मुसलमान मानते थे।वे निराकार ईश्वर के मानवधर्म की बात करते थे तो ब्रह्मसमाजी उन्हें ब्रमसमाज आंदोलन का हिस्सा मानते थे।जबकि वैष्णव उन्हें वैष्णव मानते थे।
लालन का जवाब एक वाक्य का हैः'সব লোকে কয় লালন কী জাত সংসারে।'सभी पूछते हैं कि लालन इस संसार में किस जाति के हैं।
रवींद्र नाथ लालन फकीर से नहीं मिले और न वे कंगाल हरिनाथ से मिले।लेकिन लालन फकीर और उनके बाउल अनिवार्य से वे सिलाईदह में लगातार संवाद करते रहे हैं और लालन फकीर की रचनाओं को संकलित और प्रकाशित करने की पहल भी उन्होने ही की।
लालनगीति डाट काम में इसी का ब्यौरा इस प्रकार दिया गया हैः
রবীন্দ্রনাথ ও লালন সম্ভবত লালনের সঙ্গে রবীন্দ্রনাথের দেখা হয়নি। তবে সভ্য সমাজে লালনকে পরিচয় করিয়ে দিয়েছিলেন খোদ রবীন্দ্রনাথ। লালনের একটি গানে বেশ মোহিত হয়েছিলেন তিনি, 'খাঁচার ভেতর অচিন পাখি/কমনে আসে যায়।/ধরতে পারলে মনো-বেড়ি/দিতাম পাখির পায়।' দেহতত্ত্বের এ গানটিকে রবীন্দ্রনাথ ইংরেজি অনুবাদও করেছিলেন। তিনি চেয়েছিলেন গানের মর্মার্থ বোঝাতে। আর সে কারণেই বুঝি ১৯২৫ সালের ভারতীয় দর্শন মহাসভায় ইংরেজি বক্তৃতায় এই গানের উদ্ধৃতি দিয়েছিলেন। বলেছিলেন, অচিন পাখি দিয়ে সাধারণ মানুষের কাছে কত সহজে মরমি অনুভব পৌঁছে দিয়েছিলেন লালন। লালনের সঙ্গে দেখা না হলেও লালন-অনুসারীদের সঙ্গে দেখা হয়েছে রবিবাবুর। এক চিঠির মধ্যে পাওয়া যায় সেই কথা, 'তুমি তো দেখেছ শিলাইদহতে লালন শাহ ফকিরের শিষ্যদের সঙ্গে ঘণ্টার পর ঘণ্টা আমার কিরূপ আলাপ জমত। তারা গরিব। পোশাক-পরিচ্ছদ নাই। দেখলে বোঝার জো নাই তারা কত মহৎ। কিন্তু কত গভীর বিষয় সহজভাবে তারা বলতে পারত।' শুধু কি তাই! লালনের মৃত্যুর পর তাঁর গানের খাতাও সংগ্রহ করেছিলেন রবীন্দ্রনাথ। লালনগীতি সংগ্রাহক একজনকে লালনশিষ্য ভোলাই শা বলেছিলেন- 'দেখুন, রবিঠাকুর আমার গুরুর গান খুব ভালোবাসতেন, আমাদের খাতা তিনি নিয়ে গেছেন।' সেই খাতা গত শতকের শেষার্ধে পাওয়া যায় এবং প্রকাশিত হয়।
हम आनंदमठ के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के सच पर लगातार चर्चा करते रहे हैं और बंगाल के बाउल फकीर सूफी वैष्णव बौद्ध आंदोलनों पर भी लगातार चर्चा करते रहे हैं। कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर से संबंधित उपलब्ध सामग्री भी हम लगातार शेयर कर रहे हैं। करते रहेंगे।
बहुजनों को रवींद्र का दलित विमर्श समझ में आये तो उन्हें बहुजन आंदोलन की अल विरासत की समझ आयेगी और नस्ली वर्ण वर्चस्व का यह कारपोरेटफासिस्ट तिलिस्म भी टूटेगा।इस संवाद का मकसद यही है।
बीबीसी की ताजा खबर हैः
'संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का 'हिडेन एजेंडा' है'!
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए.
संघ प्रमुख भागवत ने हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और ज़रूरत है कि आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर ग़ौर किया जाए.
आरक्षण पर फिर से विचार हो: मोहन भागवत
'वेद और विज्ञान' पर मोहन भागवत के कमेंट को लेकर चर्चा
आरक्षण पर फिर से विचार हो: मोहन भागवत
आरएसएस का 'हिडेन एजेंडा'
भारतीय लोक गणराज्य और भारतीय संविधान के साथ नरसंहार संस्कृति के वध्य भारतीय जनगण को बचाने के लिए समता और न्याय, मनुष्यता, सभ्यता और प्रकृति, नागरिकता, आजीविका, जल जंगल जमीन, नागरिक अधिकार और मानवाधिकार के लिए निरंकुश नस्ली वर्चस्व की कारपोरेट राजकाज, राष्ट्रवाद और राजनीति के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सामंतवाद विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी एकताबद्ध जनप्रतिरोध की साझा विरासत से जुड़ने की सख्त जरुरत है।
यह साझा विरासत सीधे तौर पर आदिवासी किसानों के जनविद्रोहों की निरंतरता, बाउल फकीर आंदोलन,नील विद्रोह और भारतीय सूफी संत बाउल फकीर गुरु परंपरा की जमीन है तो बहुजन आंदोलन की हजारों साल की विरासत, बौद्धमय भारत और विविधता बहुलता सहिष्णुता की अनेकता में एकता की साझा विरासत है।
रवींद्र का दलित विमर्श का सार यही है।
रवींद्र उस भारतवर्ष के प्रतीक है कारपोरेट डिजिटल इंडिया का नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व जिसकी रोज हत्या कर रहा है।
नस्ली वर्चस्व की राष्ट्रवाद के प्रतिरोध के खिलाफ तथाकथित संन्यासी विद्रोह के आनंदमठ के झूठ के खिलाफ बाउल साधु फकीर आंदोलन का सच जानने की जरुरत है। संन्यासी फकीर आंदोलन और चुआड़ विद्रोह के तुरंत बाद शुरु संथाल मुंडा भील विद्रोह के साथ नील विद्रोह से भारत में महात्मा गौतम बुद्ध, वैष्णव बाउल,सन्यासी फकीर सूफी आंदोलन के साथ लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ का जाति तोड़ो आंदोलन एक तरफ तो दूसरी तरफ हरिचांद ठाकुर के मतुआ आंदोलन से गुरुचांद ठाकुर के चंडाल आंदोलन और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन एजंडा मिशन की शुरुआत महात्मा ज्योति बा फूले के शब्दों में बहुजनों की गुलामगिरि खत्म करने के लिए शुरु हो चुकी थी।
बहुजन विमर्श,आदिवासी विमर्श,दलित विमर्श,स्त्री विमर्श और रवींद्र के दलित विमर्श का प्रस्थानबिंदू यही आदिवासी दलित बहुजन किसान असल नवजागरण है,जो इतिहास और साहित्य में नहीं है।
ब्रह्म समाज आंदोलन और औपनिवेशिक ब्रिटिश राज से भी पहले पठान मुगल इस्लामी राजकाज के दौरान समाज सुधार आंदोलनों नवजागरण की चर्चा खूब होती रही है लेकिन जाति तोड़ो अस्मिता तोड़ो के एकीकरण के बहुजन आंदोलन,आदिवासी किसान जनविद्रोहों के सिलिसिले में बाउल फकीर आंदोलन और लालन फकीर कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी के रवींद्र संगीत के दलित विमर्श पर चर्चा कभी नहीं हुई है।
बंगाल के बाहर बाकी भारत में रवींद्र और बाब डिलान के नोबेल पुरस्कार के सौजन्य से लालन फकीर के बारे में पढ़े लिखों को थोड़ी बहुत सूचना हो सकती है लेकिन दक्षिण एशिया में ग्रामीण पत्रकारिता की शुरुआत नील विद्रोह, बाउल फकीर आंदोलन और जमींदारों के प्रजा उत्पीड़न के प्रतिरोध बतौर शुरु करने वाले लालन फकीर के नवजागरण ब्रहमसमाज के समकालीन,समानंतर जाति धर्म पहचान तोड़ो आंदोलन में सहयोगी,अनुयायी पत्रकार बाउल कंगाल हरिनाथ की चर्चा अभी शुरु नही हुई है।
बहुजनों के असल नवजागरण के हिंदुत्वकरण के इसी धतकरम से नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के नस्ली राष्ट्रवाद का जन्म औद्योगिक उत्पादन प्रणाली और ब्रिटिश राज में बहुजनों को मिले हकहकूक की वजह से टूटती जाति व्यवस्था आधारित मनुस्मृति प्रणाली की बहाली के लिए हुआ।इसे समझे बिना नरसंहारी कारपोरेट फासिज्म का प्रतिरोध मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
कंगाल हरिनाथ देवेंद्र नाथ टैगोर की जमींदारी के प्रजाजनों के प्रतिरोध के नेता थे और लालन फकीर के अखाडा़ के बाउल पत्रकार भी थे।वे एक साथ नीलसामंत देशी विदेशी काले गोरे शासकों का प्रतिरोध कर रहे थे तो वर्म वर्ग वर्चस्व के साहित्य कला माध्यम के खिलाफ वैकल्पिक पत्रकारिता की जमीन भी रच रहे थे और मजे की बात यह है कि अपनी ही जमींदारी के खिलाफ प्रतिरोध की यही लालन कंगाल जमीन ही रवींद्र रचनाधर्मिता में तब्दील हो गयी है।
जैसे बाउल फकीर आंदोलन का नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के हित में भगवाकरण हुआ,जैसे संतों सूफियों,फकीरों के सामंतविरोधी राजसत्ता और दैवीसत्तो के खिलाफ लोक जमीन के प्रतिरोध आंदोलन का भक्ति आंदोलन बतौर हिंदुत्वकरण हुआ,जैसे गौतम बुद्ध,महात्मा महावीर,गुरु नानक और गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी महाराज,चंडाल मतुआ आंदोलन,लिंगायत आंदोलन,द्रविड़ आंदोलन,अयंकाली और लोखांडे के आंदोलन महात्मा ज्योतिबा फूले और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के मिशन का हिंदुत्वकरण हुआ ,उसीतरह लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ के जाति तोड़ो आंदोलन का हिंदुत्वकरण हुआ और इसी के तहत रवींद्रनाथ का महिमामंडन और चरित्रहनन का सिलसिला बारतीयजनगण और खासतौर पर भारतीयबहुजन समाज को साझा विरासत की जमीन से बेदखल करने के लिए जारी है।
रवींद्र को विश्वकवि,ऋषि रवींद्र,कविगुरु बनाकर उन्हे लालन फकीर कंगाल हरिनाथ के दलित बहुजन विमर्श और आदिवासी किसान आंदोलन से अलग रखने का कार्यक्रम आनंद मठ का दूसरा पहलू है।
आज इसी मुद्दे पर हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। विस्तार से यह आलेख हस्तक्षेप पर पढ़ें। पूरा आलेख पढ़ने से पहले मेरे फेसबुक पेज पर संबंधित संदर्भ सामग्री बाउल फकीर आंदोलन,लालन फकीर और कंगाल हरिनाथ के बारे में देख लें तो बेहतर।
लालनफकीर और कंगाल हरिनाथ की युगलबंदी का ब्यौरा इसप्रकार हैः
কাঙাল হরিনাথের 'শখের বাউল' ১৮৮০ সালের কথা। তখন গ্রীষ্মকাল। কাঙাল হরিনাথের জীবনে এক অভাবনীয় মুহূর্ত ছিল সেটা। তিনি লালনের গান শুনে মোহিত হয়ে পড়লেন। ভাবলেন নিজেও একটা বাউল গানের দল গড়বেন। তাঁর গ্রামবার্তা-প্রেসে কাজ করার সময় পাশে পেলেন অক্ষয় কুমার মৈত্রেয় ও জলধর সেনকে। ব্যস, জমে গেল সাঙ্গ। পাশে পণ্ডিত প্রসন্ন কুমার বললেন, 'নতুন করে গান তৈরি করতে হবে।' শুরু হলো কাজ। সে এক অপার্থিব দৃশ্য ছিল বটে। নকল বাউল গানের দল। গানের সঙ্গে ছিল নৃত্য। জলধর সেন সেই বর্ণনা দিয়েছিলেন চমৎকার করে, 'দেখিতেছি একদল ফকির; সকলেরই আলখাল্লা পরা, কাহারও মুখে কৃত্রিম দাড়ি, কাহারও মাথায় কৃত্রিম বাবরি চুল, সকলেরই নগ্ন পদ।' এই দল দেখেছিলেন প্রাণকৃষ্ণ অধিকারী। তাঁর বর্ণনা থেকে পাওয়া যায়, 'খেলকা, চুল, দাড়ি, টুপি ব্যবহার এবং কাহার কাহার পায়ে নূপুরও থাকিত। বাদ্যযন্ত্রের মধ্যে ডুগি, খোমকা, খুঞ্জুরি, একতারা প্রভৃতি ফকিরের সাজে তাহারা বাহির হইত। ফিকিরচাঁদ ফকিরের দল দেখিয়া শেষে গ্রামে গ্রামে অনেক দল সৃষ্টি হইল।' তবে এ কথা কিন্তু সত্যি লালন যা পারেননি, সেই কাজ করতে পেরেছিলেন তাঁরা। তাঁরা গানকে পৌঁছে দিয়েছিলেন বাংলার বিস্তৃত সীমানায়। লালনের গান চারদিকে যতটা ছড়িয়েছিল তার চেয়ে বেশি ছড়িয়েছিল নকল বাউলদের গান। অথচ লালনকে দেখে, তাঁর গান শুনে অনুপ্রাণিত হয়েই দল গড়েছিলেন কাঙাল হরিনাথ।(साभार लालनगीति डाट काम)
जाति व्यवस्था पर लालन फकीर ने जाति धर्म की पहचान पर चोट के जरिये प्रहार किया है जो संत कबीर की भाषा के अनुरुप हैः
'কেউ মালা কেউ তসবি গলায়/তাইতে যে জাত ভিন্ন বলায়- /যাওয়া কিংবা আসার বেলায়/জাতের চিহ্ন রয় কার রে।'
किसी के हाथों में माला है तो तसवी किसी के गले में।इसी से अलग जाति (धर्म) की पहचान है तो जाते वक्त (मृत्यु के समय) किसकी जाति की क्या पहचान होती है।
लालन फकीर की जीवनी लिखने वाले वसंत कुमार पाल ने उनकी धर्म जाति की किसी पहचतान को मानने से इंकार करते हुए लिखा हैः
'সাঁইজি হিন্দু কি মুসলমান, এ কথা আমিও স্থির বলিতে অক্ষম।'
कंगाल हरिनाथ ने जाति तोड़ो आंदोलन का ब्यौरा देते हुए लालन फकीर के जाति तोड़ो आंदोलन और वैष्णवों के गौरसभा आंदोलन की चर्चा अपने अखबार ग्रामवार्ता में इस तरह की हैः
গ্রামবার্ত্তা প্রকাশিকা'র প্রবন্ধ-নিবন্ধ, সম্পাদকীয়, উপ-সম্পাদকীয় ও সংবাদ নিবন্ধকার হরিনাথ মজুমদার নিজেই লিখতেন। সেই সূত্রে 'জাতি' নামক নিবন্ধে 'গ্রামবার্ত্তার' নিবন্ধকার লিখেছেন :
'...সকলেই ব্রাম্ম ও ধর্ম্মসভার নাম শুনিয়াছেন। গৌরসভা নামে নিম্নশ্রেণীর লোকেরা আর এক সভা স্থাপন করিয়াছেন। ইহার নির্দ্দিষ্ট স্থান নাই। গৌরবাদী বক্তা এক ২ পল্লীগ্রামে উপস্থিত হইয়া, সভা করিয়া গৌরাঙ্গের চরিত ও লীলা বর্ণনা করে, স্ত্রীপুরুষে ৩/৪ শত লোক এক ২ সভায় উপস্থিত থাকে। ইহারা স্বধম্র্মের মধ্যে, জাতিভেদ স্বীকার করেনা; কামার, কুমার, তেলি, জালিক, ছুতার প্রভৃতি সকলেই একসঙ্গে আহার করে। এই দলে মুসলমান আছে কিনা জানিতে পারা যায় নাই। লালনশাহ নামে এক কায়স্থ আর এক ধর্ম্ম আবিষ্কার করিয়াছে। হিন্দু-মুসলমান সকলেই এই সম্প্রদায়ভুক্ত। আমরা মাসিক পত্রিকায় ইহার বিশেষ বিবরণ প্রকাশ করিব। ৩/৪ বৎসরের মধ্যে এই সম্প্রদায় অতিশয় প্রবল হইয়াছে। ইহারা যে জাতিভেদ স্বীকার করে না সে কথা বলা বাহুল্য। এখন পাঠকগণ চিন্তা করিয়া দেখুন, এদিকে ব্রাহ্মধর্ম্ম জাতির পশ্চাতে খোঁচা মারিতেছে, ওদিকে গৌরবাদিরা তাহাকে আঘাত করিতেছে, আবার সে দিকে লালন সম্প্রদায়িরা, ইহার পরেও স্বেচ্ছাচারের তাড়না আছে। এখন জাতি তিষ্ঠিতে না পারিয়া, বাঘিনীর ন্যায় পলায়ন করিবার পথ দেখিতেছে।'
कंगाल हरिनाथ और लालन फकीर की युगलबंदी के बारे इस ब्यौरे पर गौर करेंः
এখানে প্রসঙ্গক্রমে উল্লেখ্য যে সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়ের উপন্যাস অবলম্বনে গৌতম ঘোষ পরিচালিত চলচ্চিত্র 'মনের মানুষ'-এও সরাসরি উপস্থিতি দেখানো হয়েছে সাঁইজি লালনের সঙ্গে কাঙ্গাল হরিনাথ মজুমদার ও সাহিত্যিক মীর মশাররফ হোসেনকে (১৮৪৭-১৯১১)।
অন্যদিকে, কাঙ্গাল হরিনাথশিষ্য জলধর সেন (১৮৬০-১৯৩৯) সাঁইজি লালন কাঙ্গাল কুটিরে এসে সঙ্গীত পরিবেশনের পর হরিনাথ-শিষ্যদের মনে যে ভাব উদয় হয়েছিল এর বিবরণ দিয়েছেন তার রচিত কাঙ্গাল জীবনীতে :
'সে দিন প্রাতঃকালে লালন ফকির নামক একজন ফকির কাঙ্গালের সহিত সাক্ষাৎ করিতে আসিয়াছিলেন। লালন ফকির কুমারখালীর অদূরবর্তী কালীগঙ্গার তীরে বসবাস করিতেন। তাঁহার অনেক শিষ্য ছিল। তিনি কোন্ সম্প্রদায়ভুক্ত ছিলেন তাহা বলা বড় কঠিন, কারণ তিনি সকল সম্প্রদায়ের অতীত পেঁৗছিয়াছিলেন। তিনি বক্তৃতা করিতেন না, ধর্ম্মকথাও বলিতেন না। তাঁহার এক অমোঘ অস্ত্র ছিল তাহা বাউলের গান। তিনি সেই সকল গান করিয়া সকলকে মুগ্ধ করিতেন। ... সেই লালন ফকির কাঙালের কুটীরে, আমরা দিনের যে কথা বলিতেছি, সেই দিন আসিয়াছিলেন এবং কয়েকটি গান করিয়াছিলেন। সব কয়টী গান আমার মনে নাই; একটি গান মনে আছে। যথা_
আমি একদিনও না দেখেছিলাম তারে;
আমার ঘরের কাছে আরসী-নগর,
তাতে এক পড়সী বসত করে।'
অন্যদিকে, সাঁইজি লালনের গানের প্রেরণাতেই অক্ষয় কুমার মৈত্রের (১৮৬১-১৯৩০) মাথায় প্রথম বাউলের দল গঠনের চিন্তা আসে এবং পরে কাঙ্গাল হরিনাথের শিষ্যদল তা বাস্তবতায় রূপ দেয় 'ফিকির চাঁদ' নামে। সাঁইজি লালনের গানের সুরের প্রভাবে প্রভাবিত হয়ে কাঙ্গাল হরিনাথ প্রথম গান রচনা করেন :
'আমি করব রাখালী কতকাল...।'
এরপর হরিনাথ মজুমদার একের পর এক বাউল গান রচনা করতে থাকেন। কাঙ্গাল হরিনাথ ফিকির চাঁদের দল এবং বাউল গান রচনা প্রসঙ্গে তার দিনলিপিতে উল্লেখ করেছেন :
"শ্রীমান অক্ষয় ও শ্রীমান প্রফুল্লের গানগুলির মধ্যে আমি যে মাধুর্য্য পাইলাম, তাহাতে স্পষ্টই বুঝিতে পাইলাম। এই ভাবে সত্য, জ্ঞান ও প্রেম-সাধনাতত্ত্ব প্রচার করিলে, পৃথিবীর কিঞ্চিৎ সেবা হইতে পারে। এতএব কতিপয় গান রচনার দ্বারা তাহার স্রোত সত্য, জ্ঞান ও প্রেম-সাধনের উপায়স্বরূপ পরমার্থ-পথে ফিরাইয়া আনিলাম এবং ফিকিরচাঁদের আগে 'কাঙ্গাল' নাম দিয়া দলের নাম 'কাঙ্গাল-ফিকিরচাঁদ' রাখিয়া তদনুসারেই গীতাবলীর নাম করিলাম। ... অল্পদিনের মধ্যেই কাঙ্গাল ফিকিরচাঁদের গান নিম্নশ্রেণী হইতে উচ্চশ্রেণীর লোকের আনন্দকর হইয়া উঠিল। মাঠের চাষা, ঘাটের নেয়ে, পথের মুটে, বাজারের দোকানদার এবং তাহার উপর শ্রেণীর সকলেই প্রার্থনাসহকারে ডাকিয়া কাঙ্গাল ফিকিরচাঁদের গান শুনিতে লাগিলেন।'
সাঁইজি লালনের গান লালন-পালন ও সংগ্রহে যেমন গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা পালন করেছেন কাঙ্গাল হরিনাথ তেমনি কাঙ্গালের গানের পেছনে লালনের উৎসাহ-প্রেরণা ও লালন কর্তৃক প্রভাবিত হওয়ার প্রবণতারও উল্লেখযোগ্য প্রমাণ মেলে :
... কাঙ্গাল একদিন [লালন] ফকিরকে ডাকিয়া তাঁহার [কাঙ্গালের] রচিত কতগুলি গান শুনাইয়া জিজ্ঞাসা করিরেন, 'ভাই আমার এ কথাগুলি কেমন লাগিল?' ফকির হাসিয়া উত্তর দিলেন, 'তোমার এ ব্যঞ্জন বেশ হয়েছে, তবে নূনে কিছু কম আছে।'
লালনের এই উৎসাহ-প্রেরণা ও সুরের প্রভাবে পরবর্তীতে কাঙ্গাল হরিনাথের গান উত্তরোত্তর সহজ-সরল, সুন্দর ও শ্রুতিমধুর ভাবগাম্ভীর্যময় হয়েছিল।
আধ্যাত্মিক জীবনদর্শন ও বাউল গান রচনায় সাঁইজি লালন কর্তৃক যে কাঙ্গাল হরিনাথ প্রভাবিত হয়েছিলেন শুধু তা নয়, সাঁইজি লালন নিজেও কাঙ্গাল হরিনাথের উৎসাহ-প্রেরণায় প্রভাবিত হয়েছিলেন । যেমন কাঙ্গাল হরিনাথের এই গানটি_
যারা সব জাতের ছেলে, জাত নিয়ে যাক্ যমের হাতে।
বুঝেছি জাতের ধর্ম, কর্মভোগ কেবল জেতে
একই আঙ্গিকে লালনের গান_
সব লোকে কয় লালন কি জাত সংসারে।
লালন বলে জাতের কি রূপ দেখলাম না এ নজরে
অথবা কাঙ্গাল হরিনাথ রচিত_
এখন, আমার মনের মানুষ কোথা পাই।
যার তরে মনোখেদে প্রাণ কাঁদে সর্বদাই
সাঁইজি লালন রচিত_
মিলন হবে কত দিনে
আমার মনের মানুষেরই সনে
উপরের দুটি গানই ভাবের দিক থেকে একই সাদৃশ্যমূলক ও একে অন্যের সম্পূরক। সাময়িকপত্র সম্পাদনা, সংবাদ সংগ্রহ-প্রকাশ, সাহিত্যচর্চা ও প্রজানিপীড়নবৈরী কাঙ্গাল হরিনাথ মজুমদার লালনতীর্থে এসে সাঁইজির গানের সুরের স্পর্শে হয়ে ওঠেন আর এক নতুন বাউল সুরের সম্রাট। অন্যদিকে সাঁইজি লালন কাঙ্গাল স্পর্শে এবং মাঝেমধ্যে কুটিরে সমবেত হয়ে তার গান ও সুরের দ্যুতি ছড়িয়েছেন আধ্যাত্মিক জীবনদর্শন ও বাউল গানের মাধ্যমে। মানবপ্রেম, সমাজ সংস্কার ও জীবনের জয়গানের আলোর দ্যুতি ছড়ানোর দিক থেকে সাঁইজি লালন এবং কাঙ্গাল হরিনাথ ছিলেন একই চিন্তা, ধ্যান-ধারণার এক অভিন্ন সমীকরণের অধিকারী।
कंगाल हरिनाथ फकीर की पत्रिका के बारे में बांग्ला पीडिया में लिखा हैः
Grambarta Prakashika influential nineteenth-century journal, first published in April 1863 under the editorship of kangal harinath Majumdar. In June-July 1864 it became a fortnightly and a weekly in April-May 1871. Initially it was printed at Girish Vidyaratna Press, Kolkata. In 1864 Grambarta was shifted to Mathuranath Press at Kumarkhali. In 1873 the Kumarkhali press was donated to Harinath by its owner, Mathuranath Moitreya.
Grambarta Prakaxika published articles on literature, philosophy, science etc. Reputed Bengali scholars used to write in the journal. rabindranath tagore's essays on literature, philosophy and science as well as poems were also published in it. The well-known Muslim writer mir mosharraf hossain began his literary activities through this paper for which he first worked as a mofussil correspondent. jaladhar sen, well-known as a writer of Himalayan travels and journalist, also began his literary career through this journal.
Harinath edited Grambarta Prakasika for 18 years. During this period he led a relentless struggle to promote education in Bengal and create public opinion against exploitation. He published articles exposing social and political wrongs, and his pen was particularly uncompromising against the oppression of British indigo farmers and moneylenders. [Md Masud Parvez]
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