Wednesday, August 5, 2015

‘अपने’ भ्रष्ट्रो को बचाने खुद सरकार ने ठप्प की है संसद


'अपने' भ्रष्ट्रो को बचाने खुद सरकार ने ठप्प की है संसद

04, AUG, 2015, TUESDAY 11:20:24 PM

एक बात तो तय है कि मौजूदा भाजपा सरकार संसद में हंगामे के सामने चिकना घड़ा बनी हुई है। उसे उम्मीद है कि वह हंगामे के इस तूफान को यूं ही झेल सकती है और इस तरह अपने खिलाफ एकजुट होकर विपक्ष द्वारा लगाए गए भ्रष्टïाचार के गंभीर आरोपों के लिए संसदीय जवाबदारी से बचकर निकल सकती है। इसी मानसून सत्र की पूर्व-संध्या में भाजपा सरकार ने और प्रधानमंत्री मोदी ने अपना पहला साल पूरा होने के समारोहों मेें बढ़-चढक़र दावे किए थे कि यूपीए-द्वितीय की भ्रष्टïाचार में डूबी सरकार के विपरीत, उन्होंने भ्रष्टïाचारमुक्त शासन मुहैया कराया है। बहरहाल, पिछले ही दिनों सामने आए ललितगेट घोटाले, मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले, महाराष्टï्र में दो भाजपायी मंत्रियों के घोटालों और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) घोटाले से, यह मिथक चूर-चूर हो गया है।
बहरहाल, फिलहाल संसद के दोनों सदनों में काम-काज ठप्प होने के पीछे, क्रिकेट के आईपीएल टूर्नामेंट के एक जमाने के धनी-धोरी, ललित मोदी की अनुचित रूप से मदद करने के लिए केंद्रीय विदेश मंत्री द्वारा अपने पद का दुरुपयोग किए जाने और राजस्थान की भाजपायी मुख्यमंत्री द्वारा और बढ़-चढक़र मदद किए जाने के गंभीर आरोप हैं। यह कहा जा रहा है कि क्रमश: केंद्र सरकार मेें मंत्री और राज्य विधानसभा में विपक्ष की नेता रहते हुए उन्होंने जो सिफारिशें की थीं, उनसे इस भगोड़े अपराधी को भारतीय कानून की पकड़ से बचे रहने में मदद मिली थी। यह भी आरोप है कि उनके कामों ने इस भगोड़े की एक विदेशी (ब्रिटिश) सरकार कानूनी यात्रा दस्तावेज हासिल करने में मदद की थी।
संसद के बाहर, भाजपा इन आरोपों का जवाब यह कहकर देने की कोशिश करती रही है कि विदेश मंत्री ने तो जो भी किया मानवता की भावना से संचालित होकर किया था ताकि यह भगोड़ा अपनी बीमार पत्नी की देख-भाल करने के लिए पुर्तगाल जा सके। यह भी दावा किया गया था कि भगोड़े ललित मोदी को पुर्तगाल में अपनी पत्नी का उपचार शुरू कराने के लिए कुछ दस्तावेजों पर  हस्ताक्षर करने के लिए जाना था। बहरहाल, बाद में यह सच्चाई सबके सामने आ गई कि पुर्तगाल के अस्पताल में उपचार के लिए जोड़ीदार के दस्तखत करने की कोई जरूरत ही नहीं होती है। पुन: मीडिया की रिपोर्टों ने यह भी दिखा दिया कि किस तरह अगर उक्त कार्य के लिए ललित मोदी का पुर्तगाल जाना जरूरी भी था तब भी यह काम, उसके लिए लंदन से पुर्तगाल तक की यात्रा का सीमित यात्रा परमिट जारी किए जाने से भी पूरा हो सकता था और इसके साथ ही इस तरह यह भी सुनिश्चित किया जा सकता था कि वह अपने खिलाफ आरोपों की अदालती सुनवाई के लिए लौटकर भारत आए। साधारण यात्रा दस्तावेज जारी किए जाने में उसकी मदद किए जाने की कोई जरूरत नहीं थी।
इसके साथ ही संसद की कार्रवाई के ठप्प होने के पीछे एक और कारण इसकी मांग का है कि व्यापमं घोटाले को लेकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ लगे गंभीर आरोपों पर कार्रवाई की जाए। याद रहे कि इस घोटाले में अपराध और भ्रष्टïाचार की एक घातक कॉकटेल सामने आई है, जो अब तक बीसियों जानेें ले चुकी हैं और इनमें से कई लोग तो राज्य के बाहर के भी हैं।
भाजपा सरकार विपक्ष पर आरोप लगा रही है कि वही संसद में बहस से भाग रहा है, जबकि वह तो (कृपापूर्वक!) बहस कराने के लिए तैयार है। दूसरी ओर विपक्ष उचित ही इस बात पर कायम है कि संसद में बहस, जांच का स्थान नहीं ले सकती है। उच्च पदों पर बैठे लोगों पर गंभीर आरोप लगे हैं और इन आरोपों की शीर्ष स्तर पर जांच कराए जाने की जरूरत है। और जैसाकि सरकारी कर्मचारियों के लिए कायदा है, जब तक यह जांच पूरी नहीं हो जाती है, आरोपियों को पद से हट जाना चाहिए ताकि जांच की पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सके। भाजपा सरकार से सिर्फ इतने की ही मांग की जा रही है, इससे  रत्तीभर ज्यादा की नहीं। आखिरकार, प्रधानमंत्री मोदी ने ही लाल किले से इसका ऐलान किया था कि वह 'प्रधानमंत्री' नहीं बल्कि 'प्रधान सेवक' हैं! तब मंत्रियों के लिए कम से कम वह नियम तो लागू होना ही चाहिए, जो सभी सरकारी कर्मचारियों पर लागू होता है। वास्तव में विपक्ष तो अब मोदी सरकार से सिर्फ वही पैमाना लागू करने के लिए कह रहा है, जो लागू किए जाने की खुद मोदी की पार्टी इससे पहले मांग करती आई थी। भाजपा की पहली की कथनी और अब की भाजपा सरकार की करनी के अंतर से, इस पार्टी का दोमुंहापन उजागर हो जाता है। इससे पहले यूपीए के कार्यकाल में संसद में ऐसे ही हंगामे के मौकों पर आज की विदेश मंत्री तथा उस समय की लोकसभा में विपक्ष की नेता और आज के वित्त मंत्री तथा उस समय के राज्यसभा में विपक्ष के नेता का क्या रुख रहा था, इस संबंध में काफी कुछ सार्वजनिक चर्चा में है। मिसाल के तौर पर 2005 के संसद का शीतकालीन सत्र, इराक के लिए तेल के बदले खाद्यान्न घोटाले (वोल्कर रहस्योद्ïघाटनों) पर हंंगामे की भेंट चढ़ा था और तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था। उस मौके पर वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का कहना था: ''विपक्ष द्वारा डाले गए दबाव के चलते ही कल सरकार ने मामले की जांच करने की बात कही थी...जब तक नटवर सिंह पद नहीं छोड़ते हैं, कोई जांच निष्पक्ष नहीं हो सकती है। ''(4 नवंबर, 2005)।
आगे चलकर 2012 के सितंबर में कोयला घोटाले के मुद्दे पर, लोकसभा में विपक्ष की तत्कालीन नेता सुषमा स्वराज का कहना था: ''मैं प्रधानमंत्री को याद दिलाना चाहती हूं कि जब वह (डॉ. मनमोहन सिंह) राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे, उन्होंने तहलका के मुद्दे पर संसद ठप्प की थी। ताबूत घोटाले तक पर उन्होंने संसद ठप्प की थी और हमें ताबूत चोर करार दिया था।'' और यह भी कि, ''नियम संख्या-193 के तहत बहस का मतलब होगा सरकार का बातों के रास्ते बच निकलना और विपक्ष का संसद से बहिर्गमन कर जाना। अगर हमने नियम 184 के अंतर्गत बहस ली होती तब भी वे जीत गए होते क्योंकि उनके पास संख्या है। लेकिन, संख्या का बल देश को लूटने का लाइसेंस नहीं देता है।'' और यह भी कि, ''संसद को न चलने देना भी, जनतंत्र के अन्य रूपों की ही तरह, जनतंत्र का ही एक रूप है।'' यह बात उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस दावे के जवाब में कही थी कि भाजपा का संसद को ठप्प करना, जनतंत्र को ''नकारना'' है। कांग्रेस और भाजपा की भूमिकाएं अब आपस में बदल गई लगती हैं! इस सबके बीच संसद में भ्रष्टïाचार के खिलाफ एक ही आवाज अविचल रूप से उठती रही है और यह आवाज है सीपीआई (एम) तथा वामपंथ की।
    इस संदर्भ में एक बार फिर इस बात को सामने लाना जरूरी है कि नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों ने ''दरबारी पूंजीवाद'' को पाल-पोस कर उच्च पदों पर भ्रष्टïाचार को ही पैदा किया है। यह मोदी सरकार, मनमोहन सिंह सरकार से कहीं ज्यादा आक्रामक ढंग से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा रही है। इसलिए यूपीए सरकारों के वक्त का जाना पहचाना भ्रष्टïाचार इस मोदी सरकार के दौरान अगर सघन नहीं हुआ तो उसका फिर से उभरकर आना तो तय ही था। इसके अलावा मौजूदा केंद्रीय वित्त मंत्री का मामला लीजिए, जो कि (राज्यसभा में) सदन के नेता भी हैं। वे चाबी वाले गुड्डïे की तरह बार-बार उठकर खड़े हो जाते हैं और ''व्यवस्था का प्रश्न'' उठाने लगते हैं। इस सत्र में जब भी उन्होंने ऐसा किया, तब हर बार सदन कार्रवाई बाधित हुई, जिसके कारण विपक्षी नेताओं को यह कहने का मौका मिल गया कि वे वास्तव में ''अव्यवस्था का प्रश्न'' ही उठा रहे हैं।
बहरहाल, यूपीए सरकार के तहत जब भी अव्यवस्था पैदा होती थी तो विपक्ष के नेता के रूप में उनका यही कहना होता था कि ''ऐसे भी मौके होते हैं जब संसद की कार्रवाई बाधित होने से देश को कहीं ज्यादा लाभ होता है... हमारी रणनीति हमें इस बात की इजाजत नहीं देती कि हम सरकार को जवाबदेह ठहराए बिना उसे (चर्चा के लिए) संसद का इस्तेमाल करने की इजाजत दें...हम सरकार को चर्चा के जरिए बचकर निकल जाने का रास्ता नहीं देना चाहते।'' आगे उनका यह भी कहना था कि ''विपक्ष में बैठे हम लोगों की इस बात में कोई रुचि नहीं है कि संसद में एक दिन की चर्चा के जरिए सिर्फ मुद्दों पर बात हो।'' (26 अगस्त, 2012) इस मौजूदा सत्र में उसी व्यक्ति ने यह कहते हुए विपक्ष पर आरोप लगाया है कि ''आप चर्चा से भाग क्यों रहे हैं? आप बहस से डर गए हैं'' (21 जुलाई, 2015)। फिर उनका यह भी कहना था कि ''मैं आपको चुनौती देता हूं कि हिम्मत है तो बहस शुरू कीजिए। आपके पास एक भी तथ्य नहीं है। इसीलिए आप बस शोर मचाना चाहते हैं और आप चर्चा नहीं करना चाहते...'' (22 जुलाई, 2015)
क्या इससे ज्यादा कोई दोमुंहापन हो सकता है?
15वीं लोकसभा के दौरान संसद की कार्रवाईयां बाधित होने का परिणाम यूपीए-दो के कुछ मंत्रियों-ए राजा, दयानिधि मारन, शशि थरूर, पीके बंसल, अश्विनी कुमार आदि-के इस्तीफों के रूप में सामने आया था। लेकिन आज केंद्रीय गृह मंत्री का पूरी निर्लज्जता के साथ यह कहना है कि यह भाजपा सरकार है, कोई यूपीए सरकार नहीं है और कि कोई भी मंत्री इस्तीफा नहीं देगा!
भाजपा के मौजूदा दोमुंहापन को बेनकाब करने के लिए हम और पीछे भी जा सकते हैं जब दिसंबर 1995 में अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन दूर संचार मंत्री सुखराम के इस्तीफे की मांग करते हुए कहा था कि ''हम सिर्फ चर्चा के लिए चर्चा नहीं करना चाहते।''
निश्चित ही दो गलतियां मिलकर एक सच नहीं हो सकती। यहां बात भाजपा से यह हिसाब निपटाने की नहीं है कि देखो जब वे विपक्ष में थे तो वे क्या कहा करते थे। इस संदर्भ में संविधान द्वारा तय की गई संसद की जिम्मेदारियों को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है। हमारे लोकतंत्र की तीनों बाजुओं-कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका-की शक्तियों को विशेष रूप से अलगाते हुए और ये तीनों बाजुएं सद्भाव के साथ काम करें और संयुक्त तथा भागीदारीपूर्ण भूमिका अदा करें, इसके लिए हमारे संविधान ने जनता की इच्छा की केंद्रीयता को परिभाषित किया है।
संविधान के प्राक्कथन में यह कहते हुए इसे बेहद अर्थपूर्ण ढंग से परिभाषित किया गया है ''हम भारत के लोग... यहां इस संविधान को स्वीकार करते हैं, इसे कानूनी रूप देते हैं और अपने आपको सौंपते हैं।''
हमारी संवैधानिक प्रणाली में जनता की संप्रभुता और उसकी सर्वोच्चता ही इसका शाश्वत संदेश है। लोग अपने सांसदों को चुनने के जरिए इस संप्रभुता को अमल में उतारते हैं जो आगे सरकार को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं।
जनता के प्रति जवाबदेह होने का अर्थ अंतिम विश्लेषण में यही है कि संविधान के तहत कार्यपालिका तथा विधायिकाको सार्वजनिक मामलों का प्रबंधन करने की जिम्मेदारी दी गई है। वास्तव में यह जवाबदेही ही है जो लोकतंत्र को शासन की दूसरी प्रणालियों से अलगाती है।
संसद का प्रभावीपन ही सरकार द्वारा इस तरह की जवाबदेही को सुनिश्चित करता है जो ''सुशासन'' के लिए बेहद जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी तथा भाजपा ने 2014 के आम चुनावों में उबकाई आने की हद तक यह अभियान चलाया था कि वे डॉ. मनमोहनसिंह की सरकार की ''लकवाग्रस्तता'' और ''चुप्पी'' के विपरीत वे जनता को सुशासन मुहैया कराएंगे।  सरकार को जवाबदेह बनाने की अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को अदा करने से संसद को वंचित करने के जरिए वे ''सुशासन'' को गंभीर रूप से कमतर बना रहे हैं बल्कि वास्तव में उसे नकार रहे हैं।
इसलिए बहस के जरिए नहीं, बल्कि आरोपों की जांच के आदेश देने के लिए कार्यपालिका पर दबाव बना कर सिर्फ संसद ही प्रभावी विधायिकाई जांच-पड़ताल के जरिए कार्यपालिका को जवाबदेह बनाना सुनिश्चित कर सकती है।  भाजपा सरकार ''बहस के लिए बहस'' कराने की ओट लेकर जवाबदेही से बचने की कोशिश कर रही है। इस तरह आज यह भाजपा सरकार ही है जो संसद की कार्रवाई नहीं चलने दे रही। इसके अलावा भाजपा की यह दलील है कि विदेश मंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री ने जो सिफारिशें की हैं, वे भ्रष्टïाचार की करतूत नहीं हैं। यह सफेद झूठ है।
भ्रष्टïाचार निवारण कानून 1988 की धारा 13 (1) (डी) (3) कहती है कि ''जन सेवक के पद पर रहते हुए किसी व्यक्ति से कोई मूल्यवान वस्तु हासिल करना या बिना किसी सार्वजनिक हित के आर्थिक लाभ लेना'' भ्रष्टïाचार है।  निश्चित रूप से एक ऐसे व्यक्ति के लिए किसी दूसरे देश से यात्रा दस्तावेज हासिल करना,जो  भारतीय कानून के तहत कार्रवाई से बचने के लिए बाहर रह रहा हो और जब भारतीय कानून के तहत इस भगोड़े के पासपोर्ट को अवैध घोषित कर दिया गया हो, एक ''मूल्यवान चीज'' है और वह ऐसी चीज है जिसमें ''कोई सार्वजनिक हित'' नहीं है। यह सीधे-सीधे भ्रष्टïाचार है।
इस संदर्भ में याद कीजिए कि ऐसी स्थितियों से एक पश्चिमी लोकतंत्र कैसे निपटता है। यूनाइटेड किंगडम (यू के) में टोनी ब्लेयर की सरकार से पीटर मंडेलसन का इस्तीफा इसका समुचित उदाहरण है।
वर्ष 2001 की शुरुआत में ब्रिटिश मीडिया में इस तरह की रिपोर्टें आई थीं कि मंडेलसन ने हिंदुजा भाइयों में एक श्रीचंद को पासपोर्ट दिलाने में ''मदद'' करने के बदले ''मिलेनियम डोम'' (सहस्राब्दी गुबंद) के लिए धन जुटाया है।  वर्ष 1981 के ब्रिटिश नागरिकता कानून का उल्लंघन करते हुए यह पासपोर्ट, आवेदन करने के छ: महीने के भीतर दे दिया गया था, जबकि औसतन इसके लिए 20 माह लगते थे। ऐसा यूके के गृह कार्यालय में आव्रजन मंत्री को मंडेलसन द्वारा की गई सिफारिश के आधार पर किया गया था।  ब्रिटिश संसद में इस पर भारी हल्ला मचा। मंडेलसन को इस्तीफा देना पड़ा, हालांकि श्रीचंद आहूजा कोई गलत काम करने का आरोपी नहीं था और ना ही न्याय से भाग हुआ भगोड़ा था। ''मिलेनियम डोम'' भी एक राष्टï्रीय इमारत थी और उससे किसी का कोई आर्थिक लाभ नहीं जुड़ा था।
इसके अलावा मौजूदा मामले (जब विदेश मंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री दोनों ही सार्वजनिक तौर पर यह कह रही हैं कि ललित मोदी के साथ उनके करीबी संबंध थे) के विपरीत मंडेलसन तथा श्रीचंद आहूजा के बीच किसी तरह का कोई ''करीबी संबंध'' होने का भी कोई संकेत नहीं मिलता। यह सिर्फ सिफारिश में बरता गया सीधे-सीधे अनुचित व्यवहार ही था, जिसके चलते मंडेलसन को इस्तीफा देना पड़ा था।
लेकिन यहां भारत में गंभीर अपराध करने वाले लोगों को यह भाजपा सरकार बचा रही है! यही है वह ''सुशासन'' जिसे देने का वादा 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। इन वादों के साथ दगा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस मोदी सरकार को संसद के प्रति और उसके जरिए जनता के प्रति जवाबदेह होना ही पड़ेगा।

 

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