दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी,दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
दिल में हो नीली झील कोई तो ज्वालामुखी भी होगा कहीं भीतर ही भीतर, सबसे पहले उसके मुहाने सील कर दो यारो!
जतन करो कुछ ऐसा कि आग फिर सर्पदंश न हो कहीं!
जतन करो ऐसा कि गुस्सा न हो जाये ततैया भैय्या!
फिर राख में हुए तब्दील तो आग के परिंदे भी बने!
ताकि आदमखोर दरिंदों के खिलाफ जीत लें जंग हम!
जान लो,तुम्हारे हिस्से की फरहा भी होगी कोई!
वे तमाम लोग जो बदलाव के मसीहा हैं,गुस्से को परमाणु बम बनाकर जनता के दुश्मनों के मत्थे फोड़ते वाे लोग हैं।गुस्से में अंधे लोग सिर्फ दंगा फसाद करने वाले जिहादी या आत्मघाती बम होते हैं,बदलाव के मसीहा हरगिज नहीं।इसलिए गुस्से को यूं जाया न करें।आखिर मुहब्बत खातिर फिर अफजल होना चाहिए!
पलाश विश्वास
दिल में हो नीली झील कोई तो ज्वालामुखी भी होगा कहीं भीतर ही भीतर,सबसे पहले उसके मुहाने सील कर दो यारो!
जतन करो कुछ ऐसा कि आग फिर सर्पदंश न हो कहीं!
जतन करो ऐसा कि गुस्सा न हो जाये ततैया भैय्या!
फिर राख में हुए तब्दील तो आग के परिंदे भी बनें!
ताकि आदमखोर दरिंदों के खिलाफ जीत लें जंग हम!
जान लो,तुम्हारे हिस्से की फरहा भी होगी कोई!
वे तमाम लोग जो बदलाव के मसीहा हैं,गुस्से को परमाणु बम बनाकर जनता के दुश्मनों के मत्थे फोड़ते वाे लोग हैं।
गुस्से में अंधे लोग सिर्फ दंगा फसाद करने वाले जिहादी या आत्मघाती बम होते हैं,बदलाव के मसीहा हरगिज नहीं।
इसलिए गुस्से को यूं जाया न करें।
आखिर मुहब्बत खातिर फिर अफजल होना चाहिए!
कहते हैं कि नागिन हर हाल में बदला जरुर लेती है कि खून का बदला खून है,ये भी वे कहते हैं।
यकीन मानों के जो ऐसी अफवाहें फैलायें,वे ही जिहाद का फर्जीवाड़ा करके कायनात को फूंके हैं और इस फिजां में नफरत नफरत का अंधियारा उन्हीं का कारोबार।
मजहब के तो हैं ही सियासत के वे दरिंदे हैं।
गुस्से को सियासत में तहब्दील करना गुनाह तो गुस्से का इजाहार अगर मजहब तो इबादत से बड़ा कोई गुनाह नहीं है।
गुस्से को गुस्से में रहने दो।दिल अगर जलता है,तो जलने दो।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
गुस्सा कोई सर्पदंश नहीं होता यारों!
न गुस्सा कोई ततैय्या है भैय्या!
गुस्से से जायज कोई चीज नहीं!
न गुस्से से पाक कोई जज्बा है यारो!
गुस्से को पहले बर्फ की सिल्ली में पिसो!
गुस्से की चटनी बनाकर भी देख लें!
इस गुस्से में जो आग है,उसी आग में
जनमते हैं बदलाव के तमाम मसीहा!
बदलाव के अंजाम से पहले हो जाये राख
तो अग्निपाखी बनने का मंत्र आजमाइये!
कि रंजिश से बड़ी रंजिश कोई और चीज है!
कि ख्वाहिशों से बड़ी ख्वाहिश कोई और चीज है!
कि ख्वाबों से ख्वाब बड़ा कुछ और ही है!
कि रुसवाइयों में अंत नहीं जहां का!
कि दिलों में दावानल है अगर इन दिनों सचमुच
तो आग के परिंदे बदलाव के फौज बनेंगे यकीनन!
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
कांटा कहीं धंस रहा है भीतर ही भीतर तो
समझ लो,बुलबुल भी गा रही होगी कहीं न कहीं!
गोस्वामी तुलसीदास पत्नी के तिरस्कार की वजह से गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस के रचयिता बने या या उस तिरस्कार की शर्मींदगी से या उससे उपजे अपने खिलाफ आक्रोश से।इस बारे में अभी मैं कुछ भी तय नहीं कर सका।
फिरभी मुझे न जाने क्यों लगता है कि रगों में खून है तो खून खौलना भी चाहिए।जो खून खौले नहीं,वह कोई खून नहीं है।
इस गुस्से को सहेजना चाहिए क्योंकि गुस्से से ज्यादा रचनात्मक कोई चीज नहीं है और गुस्सा अगर न आया हालात पर तो हालात हरगिज नहीं बदलने वाले हैं।
सिर्फ गुस्से में होश नहीं खोना चाहिए।
गुस्से को जो थाम सकें और गुस्से का काम जो अंजाम तक ले जा सकें तो वे ही आखिर बदलाव के मसीहा होते हैं।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
रंगभेद के खिलाफ गांधी को गुस्सा नहीं आया होता या नेल्सन मंडेला गुस्से को जनांदोलन में बदल नहीं पाते तो दुनिया का इतिहास कुछ और होता।
बाबासाहेब डा. अंबेडकर को अपने अछूत होने पर गुस्सा न होता तो वे न जाति उन्मूलन को अपना मकसद बनाते और न स्वतंत्र भारत का संविधान रच पाते।
अछूत हैं तो अहसास हो इसका,फिर आग भी हो जो गुस्से के सबब में पकी हो खूब,तभी बदल सके कोई दुनियां।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
वे तमाम लोग जो बदलाव के मसीहा हैं,गुस्से को परमाणु बम बनाकर जनता के दुश्मनों के मत्थे फोड़नेवाले वाे लोग हैं।
गुस्से में अंधे लोग सिर्फ दंगा फसाद करने वाले जिहादी या आत्मघाती बम होते हैं,बदलाव के मसीहा हरगिज नहीं।
इसलिए गुस्से को यूं जाया न करें।
सर्पदंश से बदलाव का कोई मकसद यूं पूरा नहीं होता।
न बदलाव की सुनहली फसल की जमीन बर्र का कोई छत्ता।
बिना मेहनत मशक्कत खाना अगर हराम है तो काहे का भत्ता
बैंगन हैं खेतों में तो भुर्ता बनाना सीख भी लीजिये।
लिट्टी से गुजारा है,तो चोखा भी चोखा बनाना सीख भी लीजिये।
इस जुल्म की दुनिया के हकीकत यूं नहीं बदलने वाले।
गु्स्से में हैं तो हकीकत की दुनिया बदलना सीख लीजिये।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
हमने सर्पदंश से नीला पड़ते लोगों को सांस सांस मरते देखा है और हमने तमाम रंग बिरंगे सांपों की फौजें भी देख ली है।
सांप जैसे बर्फीले गुस्से का अंजाम भी देखा है।
बर्र के छत्तों से पीके बनकर टकराकर भी देखा है।
भोजपुरी हांकि जुबां पर आमीर खान नहीं है जैसे
कोई अनुष्का किसी की जगतजननी नहीं होती
वैसे ही हर मुहब्बत का किस्से में मुहब्बत नहीं होती।
हैमलेट हो या हैदर,बदलाव के हीरो वे आखिर नहीं हैं वह तो मरते खपते आवाम की खुदकशी का किस्सा है।
ध्यान रहे कि हम किसी खुदकशी के किस्से में शामिल नहीं हैं और न किसी लैला के हम मजनूं है या शीरीं के फरहाद।इसका मतलब यह नहीं है कतई कि हमें किसी से मुहब्बत भी नहीं है।
फिरभी हकीकत कोई ग्रीक त्रासदी हर बगावत के बाद यह है कि यह है कि हैमलेट हो या हैदर,बदलाव के हीरो वे आखिर नहीं हैं वह तो मरते खपते आवाम की खुदकशी का किस्सा है।
मेरे अजीज दोस्तों,वही खुदकशी हम बचपन से मौत की दहलीज तक अपना रहे हैं तो आग के परिंदे फिर कहां से निकलेंगे?
अजीज दोस्तानियों, बदलाव की आंधी फिर आयेगी कहां से इस जुल्मोसितम बेदखली के खिलाफ?
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
हमारी चाची हमसे कोई चौदह पंद्रह साल बड़ी होंगी।
बसंतीपुर गांव बना तभी फौज से लौटकर डाक्टर बने थे हमारे चाचाजान।यूं तो फिरंगी थे पक्के जवान।चलते न थे,कदमताल करते थे।सर से लेकर पांव तक सफेद।टोपी से लेकर जूते तक।
कीचड़ में धंसे मछली का शिकार हो तो वही लिबास तो जलसा कहीं हो तो घर से कुर्सी उसी तरह उठाकर ले जाते जैसे दावत पर कहीं भी हमारे ताउ घर से मिर्ची की पोटलियां ले जाते थे।
जूता सिलाई हो या फिर चंडीपाठ,हर मामले में चाचा हमारे परफेक्ट आमिर खान थे।दिन में गांव गांव जाकर लोगों के इलाज की फेरी लगाते थे वे तो रात में खेतों की रुह भी जगाते थे हमारे चाचाजान।
दुनियाभर के क्लासिक से उनको खास मुहब्बत थी चाहे साहित्य हो या संगीत।विविध भारती के साथ तबले की संगत करते हमने उनको देखा है और जीते जी आग के दरिया से गुजरते हुए राख में तब्दील होते उन्हें भी देखा है।
कि जमाने से बहुत आगे रहे हैं वे हमारे सबसे खास चाचा जान,जो अबभी मेरे ख्वाबों में फिर फिरकर लौटे हैं।
टुसुवा को गौर से देखता हूं तो चाचाजान बहुत याद आते हैं।
जिस चाची ने कोलकाता में भाई सुभाष के यहां कैंसर से दम तोड़ा,उनका जिगर भी यकीनन बहुत बड़ा था।
वह हमारी चाची हमसे कोई चौदह पंद्रह साल बड़ी होंगी।
हमें याद नहीं है कि चाची के रहते हमने मां या ताई से कब खाना मांगा होगा।
नंगी पीठ बर्र के छत्ते से टकराया जब जब,या फिर पेड़ से चढ़कर गिरे हों जब जब,घर में किसी के फरिश्ते को खबर न होती थी।गुपचुप चाची हमारा इलाज कर देती थीं।
गुस्से की विरासत जीते रहे हैं हम तजिंदगी।
गुस्सा हमारा आखिर असली डीएनए है।
हमारे पुरखे पुश्त दर पुश्त इसीलिए चंडाल नाम से मशहूर हुए हालांकि न वे जल्लाद रहे हैं और न दरिंदे हुआ उनमेेें से कोई।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
कोई कोई जंगली सूअर जरुर रहा होगा असली जो किसानों के खेत जोत दिया करे हैं।
पिता हमारे खेत जोता करे हैं अस्सीपार,लेकिन वे जंगली कोई सूअर यकीनन न थे जो तजिंदगी दूसरों के खेत जोते रहे।
हमारे चाचाजान भी वैसे ही थे जैसे उनके भाई।
इलाज करे जो सो तो करे ही,दवा भी दें,दवा खाने लायक बनने के खातिर जो ही जरुरी हो,उत्तराखंड से लेकर असम तक,भारत से लेकर नेपाल तक वे वही करते रहे।
उस चाचा को राख होते देखा है तो समझ लीजिये कि दिल कितना लहूलुहान हुआ होगा।
उसी चाचा की मेहरबानी है और चाची की भी मेहरबानी है कि साहित्य के सिवाय बातें उनकी कुछ और न होती थीं कि हम भी साहित्य के दीवाने इस कदर हो गये कि जिस आग में दफन हो गये वे दोनों ,उसी आग में अब भी सुलग रहा हूं।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
सुना है कि हुकूमत को अश्लील कुछ न चाहिए।
साइट तमाम बंद करे हैं लेकिन विज्ञापनों पर कोई रोक नहीं है।
आजादी पर फतवा है लेकिन कामशास्त्र की बुतपरस्ती से कोई तोबा यकीनन नहीं है।
वात्सायन तमाम अब भी आसन ईजाद कर रहे हैं और उनमें फिर कोई कोई नहीं,अनेक बापू भी हैं।
हम तो बापू किसी और को जान रहे थे।
हुकूमत को मालूम नहीं है कि फतवा चाहे जो दे दो,पर गुस्से के खिलाफ कोई फतवा होता नहीं है।
हो भी तो किसी काम का नहीं है।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
हुकूमत को मालूम नहीं है कि उनको सिर्फ सर्पदंश का किस्सा मालूम होगा और जहरमोहरा भी उनके पास बहुतै होगा।
जैसे दलितों के सारे राम। जो दरअसल राम नहीं थे कभी।
फर्जी जितने राम हुए,उससे ज्यादा फर्जी वे फिर हनुमान हैं।
वरना हनुमान की तरह कलेजा चीरकर दिखावैं।
वैसे ही फर्जीवाड़ा है शारदा जैसा उतना,जो दरअसल हुकूमत का सिलसिला बनाये रखने का पोंजी नेटवर्क है।
वैसे ही जैसे आरबीआई, जैसे सेबी बेलगाम,जैसे सेनसेक्स का सेक्स और सोने का भाव क्योंकि असली गेमचेंजर कोई आधार या डीएनए प्रोफाइलिंग हरगिज नहीं है,टूटते डालर में दहकती तेल की आग है और उसमें महकता जिहाद और जिहाद के खिलाफ जंग है।
जो दरअसल शत प्रतिशत हिंदुत्व जितना है,जितना है मुक्त बाजार,उससे कहीं दुनिया और कायनात और इंसानियत के सफाये का चाकचौबंद इंतजाम है।
न जाने क्यों जरखरीद किसी गुलाम का नाम फिर राजन है।
जैसे कोई ना जाने हैं राज यह कि जो फरिश्ता महाजिन्है हुआ करै टाइटैनिक बाबा हो,वे ही सुखी लाला असल दरअसल महाजन हैं।
लाख टके का हो या करोडों डालर का सूट,वे तो आखिर नंगे बिररिंची बाबा हुए,आंखों में सहर हुआ न करे तो शहर में हकीकत कोई न जानै है कि कटकटेला अंधियारा कारोबार है तेजबत्तीवाला।
तो इंसानियत के भूगोल को गुस्सा यकीनन आना चाहिए।
लेकिन किसी बर्र के छत्ते से शुरु होती नहीं है वह जंग,आखिर में जीत जिसमें मेहनतकशों की हो।उनके हकहकूक बहाल हो।
हकहकूक की बहाली की जंग इसीलिए कोई अकेला सर्पदंश नहीं है और सिरफिरे हैं वे तमाम लोग जो समझते हैं कि सर्पदंश से नागिन का बदला पूरा होगा और कायनात सही सलामत होगी।
घात लगाकर दहशतगर्दी से जिहाद होता होगा,अरब का वसंत होता होगा,नफरत की फसल तैयार होती होगी।
इतनी आग होगी कि जैसे सुलग रहा है पंजाब इस पार उसपार बराबर क्योंकि लाहौर अमृतसर वालों का गुस्सा सबसे भयंकर है।
फिर भी किसी की रंजिश से बदलाव यकीनन होताइच नहीं।
घात लगाकर दहशतगर्दी से जिहाद होता होगा,अरब का वसंत होता होगा,नफरत की फसल तैयार होती होगी।इतनी आग होगी कि जल रहा है अपने हिस्से का काश्मीर तो उनका काश्मीर भी जल रहा है।
फिर किस्सा वहींच,मसला भी वहींच,कि फिर भी किसी की रंजिश से बदलाव यकीनन होताइच नहीं।
कि सरहदों के आरपार हुक्मरान हो कि आवाम किसी को ख्याल नहीं है कि धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर है और उस कश्मीर को नर्क मुकम्मल बनाने लगे हैं लोग।
हुक्मरान का कहिये मत,आवाम भी गुस्से में है।
हकीकत यह है कि न आजादी इसतरह मिलेगी किसी दहशतगर्द के शिकंजे से।क्योंकि हमारा गुस्सा उनका बहाना है जुल्मोसितम का।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
कश्मीर सिर्फ झेलम,चिनार और डल झील ही नहीं हैं।
दरिया और भी हैं झेलम के सिवाय मसलनरावी और सतलज,ब्यास और पार्वती और सारे के सारे कगार तोड़कर बहने लगे हैं।
हम यकीनन नहीं जानते कि कश्मीर को फहराता हुआ तिरंगा भी नहीं है,इस खुशफहमी से निजात मिल जाये तो बेहतर।
वरना कश्मीर में दीगर झंडे तले हुजूमोहुजूम नहीं होता।
बेहतर है कि कश्मीर को सरहदों की जंग बनाने वालों की असलियत भी समझ लें हम क्योंकि उनके एजंडा राष्ट्रद्रोह के सिवाय कुछ भी नहीं।गलत लोगों के खिलाफ फतवा देकर राष्ट्रद्रोह का कारोबार चला है सरहदों के दरम्यान रेशम पथ है राष्ट्रद्रोह का।
बंटवारा जिनका मकसद हासिल हो गया सन सैंतालीस में,बंटवारे के वारिशान वे रियासतों के मालिकान मुल्क के खिलाफ भी उतने हैं,जितने वे आवाम पर जुल्मोसितम ढाये हैं।
तो मुल्क के खिलाफ गुस्सा हरगिज न कीजिये।
खून है तो खून को खौलने भी दीजिये।
आग है तो सही जगह आग होनी चाहिए।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
सबसे जो जो जरुरी इंसानियत का मुल्क है
सबसे जो जो जरुरी जो कायनात है
सबसे जरुरी जो मुहब्बत है
सबसे जरुरी जो अमन चैन है
उसके खिलाफ काले झंडे की बेइज्जती न कीजिये।
दिल फिर भी शम्मी कपूर होना चाहिए कि कश्मीर की कली से मुहब्बत फिर होनी चाहिए।डल झील से पुकारेें फिर आनी चाहिए।
गुलमर्ग में बहार भी खिलनी चाहिए।
और बूटों की,वर्दियों की खौफ से चाहे इसपार का कश्मीर हो या चाहे उसपार ड्रोन के हवाई हमलों की जद में मरखप रहा कश्मीर हो आजाद कोई,उसे इस नर्क से फारिग आखिर होना चाहिए।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
तभी फरहा मकम्मल मुहब्बत होगी और हर शख्स कोई नहीं,फिर वही अफजल होगा,प्यारा अफजल।जिहादी नहीं कोई।
हमारा गुस्सा तो काला गुस्सा है जैसे कि बंगाल का काला जादू अजब गजब है,उतना ही हमारे गुस्से का किस्सा भी अजब गजब है।
दरअसल यह हमारा काला,अछूत,आदिवासी डीएनए हैं।
फर्जी हमारा सवर्ण वजूद और असली वर्ण,नस्ली,रंगभेदी आधिपात्य के सौ फीसद अखंड हिंदू राष्ट्र में हम मानेंगे नहीं।
आखिर कि सरहदों के आर पार,पहचानके दायरे के पार हम फिर वही मधेशी आदिवासी है।
जिन्हें नेपाल में भी हिंदू राष्ट्र नहीं चाहिए और जो बांग्लादेश को इस्लामी बनाने के जिहाद के खिलाफ लड़ रहे हैं,जो पाकिस्तान ने फौजी हुकूमत के जुल्मोसितम से तबाह हैं तो अफगानिस्तान में बारुदी सुरंग हैं और श्रीलंका में फिर वही खौलता खून है जो हर नरसंहार का हिसाब मांग रहा है।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
हम यकीनन नहीं जानते कि हम कब तलक हर खेत का हिसाब मांगेंगे आखिरकार।
हम यकीनन नहीं जानते कि हम कबतलक हर खलिहान का हिसाब मांगेंगे आखिरकार।
हम यकीनन नहीं जानते कि हम कबतलक बेदखल जल जंगल जमीन के हर टुकड़े का हिसाब मांगेंगे आखिरकार।
कि गुस्से को थामने का हुनर हमने सीखा नहीं है अभीतलक।
कि दाने दाने का क्या कहें,किसी दाने के हिस्सा मांगने की औकात नहीं है फिलहाल हमारी और गोलियों से छलनी हैं दिलोदिमाग।
किसी दाने पर अब किसी का नाम लिखा होता नहीं है।
इसीलिए इस मुल्क में आवाम को रोटी भी मयस्सर नहीं है।
रगों मे लहू बहता नहीं होगा यारों।
लहू मुंह पर लग जाये,ऐसा लहूं कहां है यारो।
जख्मी हैं सर से पांव तलक।
पर खून का नामोंनिशां भी नहीं है।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
इंसानियत का नक्शा कोई हो मुकम्मल तो हम फिर वही चीनी हैं जो जापानी और बरतानिया हुकूमत में तबाह हुए और बदलाव भी हमीं लायें वहां जो अब मुक्त बाजार है हमारे मुक्त बाजार हिंदू राष्ट्र की तरह,न हमसे कम और न हमसे ज्यादा।
क्रांति व्रांति के किस्से का क्या,हम फिर वही अफीमखोर है कि किसी ने बहुत पहले फरमाया है कि मजहब अफीम है।सियासत भी अफीम है इनदिनों।सबसे बड़ा अफीम यह मुक्त बाजार है।
उसी अफीम के मरीज हैं हम ऐसे कि सांप काट लें तो सांप मर जाये लेकिन कुछ भी हो जायें कहीं,यह अफीम असर है कि फर्क न पड़े कहीं।किसी को फर्क ना पड़े है।वंदे मातरम कहने से कोई मुल्क इंसानियत का मुल्क हरगिज नहीं होता,हिंदू राष्ट्र जरुर होता है।
इंसानियत का नक्शा कोई हो मुकम्मल तो हम फिर वही दोबारा इतिहास के झरोखों में झांके हैं और कोलंबस और वास्कोडीगामा का सफाया अभियान को हिटलर के कत्लेआम से कम न आंके हैं।न आंके कम सिखों के नरसंहार या गुजरात के कत्लेआम से।
फिर लातिन अमेरिका हो या फिर अमेरिका,यूरोप हो या अफ्रीका या फिर अरब का तेल कुंआ कोई,हर कहीं आखिर हुजूम के हुजूम इंसान मारा जा रहा है तो इंसान बचेगा नहीं कही भी यकीनन।
हुकूमत अगर दहशतगर्दी में हो तब्दील तो गु्स्सा फिर आना चाहिए।
फिरभी मुझे न जाने क्यों लगता है कि रगों में खून है तो खून खौलना भी चाहिए।जो खून खौले नहीं,वह कोई खून नहीं है।
इस गुस्से को सहेजना चाहिए क्योंकि गुस्से से ज्यादा रचनात्मक कोई चीज नहीं है और गुस्सा अगर न आया हालात पर तो हालात हरगिज नहीं बदलने वाले हैं।
सिर्फ गुस्से में होश नहीं खोना चाहिए।
गुस्से को जो थाम सकें और गुस्से का काम जो अंजाम तक ले जा सकें तो वे ही आखिर बदलाव के मसीहा होते हैं।
दिलों में आग है तो आग से निकलेंगे परिंदे भी, दरिंदे हरगिज नहीं,जो बदलाव की फौज बनेंगे!
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