प्रधानाध्यापक के रूप में मेरे प्रयोग -१
10.2.1987- 15.2.88
अध्यापक के रूप में चौथाई शताब्दी तक कार्य करने के उपरांत, पता नहीं कैसे उत्तरप्रदेश का शिक्षा विभाग शीत-निद्रा से जागा और उसे लगा कि वर्षों से एक ही पद पर बैठ कर निरंतर 'कब लोगे खबर मोरे राम' पुकारते हुए इस जैसे अनेक अध्यापकों को भी अब विद्यालयों की बागडोर सौंप ही देनी चाहिए। एक दिन जब मैं विद्यालय पहुँचा, आकाशवाणी सी हुई, 'हे परंतप ! उत्तिष्ठ प्रधानाध्यापको भव। ग्रहाण एकं विद्यालयम्'।
अध्यापकीय जीवन में पढ़ने-पढ़ाने के अलावा कुछ किया नहीं था। न श्रद्धा न भक्ति। शुष्क ज्ञानमार्गी। बहुत से प्रधानाचार्यां के अधीन काम किया। अधिकतर प्रधानाचार्य भक्तिमार्गी थे। पत्र, पुष्प, फल, 'तोय', भेंट और पूजा से तुष्ट होने वाले और इसी तरह अपने आराध्यों को संतुष्ट करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने वाले। उनके मन और मस्तिष्क में जैसे गोपनीय आख्या की लुगदी के अलावा कुछ था ही नहीं। उनका संसार विभागीय अनुदेशों की खानापूरी और अनुदानों के निपटान तक ही सीमित था। कार्य जैसा भी हो या न भी हो, मालिकों के पास रपट बढि़या जानी थी। राजकीय इण्टर कालेज, नैनीताल में हमारे एक प्रधानाचार्य श्री वैद्यनाथ पांडे का निर्देश था कि कार्यक्रम कराने में सिर मत खपाओ। केवल बढि़या सी रिपोर्ट तैयार करो और ऊपर को चलता कर दो। कुछ जन्मना प्रमत्त मिले तो कुछ अनुदान उपभोग के अलावा 'मसि कागद छूयो नहीं' ब्रांड। यदा-कदा किसी खोह में गर्भ से ही प्रधानाचार्य के रूप में अवतरित ओवरनाइट एक्सप्रेस।
पढ़ाई के दिनों में प्राथमिक पाठशालाओं से लेकर महाविद्यालय तक एक से एक कर्मठ आचार्यों की छत्रछाया मिली थी। कुछ तो ऐसे थे जिनके लिए ज्ञान नैतिकता और अनैतिकता से परे था। वे किसी भी विषय पर खुल कर बहस करते थे। यह नहीं कि उनमें वक्ते शाहंशाह के दासानुदास या मालिक के इशारे पर किसी की भी बलि लेने को तैयार, आपत्कालीन धर्म की दुहाई देकर नैतिकता, मूल्यों और नियमों को ताक पर रख देने वाले लोग नहीं थे, फिर भी अच्छे और निर्लोभ शिक्षकों का प्रतिशत अधिक था। कुछ तो ऐसे भी थे जो 'हरइ शिष्य धन शोक न हरई, सो गुरु घोर नरक मँह परई' की सीमा तक छात्र हित के लिए समर्पित थे। यदि उनमें कहीं कुछ कमी भी रही होगी तो किशोर वय की भावुकता ने मुझे उस ओर झाँकने ही नहीं दिया।
मैं न बाहुबली था न प्रतिभाशाली पर फितूरी बहुत था। जो चढ़ गयी तो चढ़ गयी। इसलिए यदा.-कदा प्राचार्यों के सिर दर्द का कारण भी बन जाता था। नाना प्रकार के नर-बानरों के अधीन काम करते-करते मन के किसी कोने में अपने विद्यालय का स्वप्न बहुत दिनों से ताक-झाँक करता रहता था। सेवा की चौथी अवस्था में जब सरकार ने एक विद्यालय मेरी झोली में भी डाल दिया तो मुझे लगा अब बहुत दिनों की कल्पना को प्रयोग के तौर पर आजमाने का अवसर मिल गया है।
रुद्रपुर-गदरपुर मार्ग पर एक हाईस्कूल है, राजकीय उच्चतर.माध्यमिक विद्यालय, बागवाला। भवन शब्द के सबसे निचले पायदान पर खडे़ तीन कक्ष, सीमावर्ती चौकियों पर शत्रु की गतिविधि की टोह लेने के लिए बने गवाक्षों की तरह की छोटी-छोटी खिड़कियों वाले मात्र नौ फुट ऊँचे तीन कमरे, वैदिक ऋषियों के गुरुकुल का आभास देतीं दो पर्णकुटियाँ, उनमें, बचपन से ही पंचाग्नि सेवन का अभ्यास करते पाँच कक्षाओं के लगभग 250 छात्र और यदा-कदा आपस में देवासुर संग्राम का अभ्यास करते दशावतार अध्यापक।
सद्य वैधव्य-तुषारावृता, रसोई घर से उठा कर विद्यालय के कार्यालय में स्थापित प्रस्तरमूर्ति सी मौन, मृतक आश्रिता एकमात्र लिपिक आनन्दी, पत्नी के सहारे किसी तरह विद्यालय में यदा-कदा अवतरित होता, चौरासी वर्ष की अवस्था में भी अभिलेखों में 54 वर्ष पर अटका पड़ा गलितांग अँगूठाछाप स्वच्छक बाबूलाल। 'वित्त.विवेक एक नहिं मोरे' प्रधानाचार्य अर्थात् मैं । पड़ोस में पूर्वजों द्वारा विद्यालय के लिए जमीन का एक टुकड़ा दे दिये जाने के कारण विद्यालय को सकुटुंब दासानुदास मानते दबंग बिहारी भू.स्वामी। घर बगल में, अड्डा विद्यालय में। विद्यालय था या शिवजी की बारात?
पूर्ववर्ती प्रधानाचार्य, शायद, सब के सब कबीरपंथी थे। 'दास कबीर जतन तें ओढ़ी, जैसी की तैसी धरि दीनि चदरिया'। ऊपर से कुछ टपका भी तो उसे प्रसाद समझ कर जमीन पर गिरने नहीं दिया था। परिणामतः स्थापना के बाद के पिछले सात-आठ वर्ष में विद्यालय भवन आदि में अधिक विकार नहीं आया था। यह अवश्य हुआ कि प्रसाद भले ही प्राचार्य और उनके कार्यालय ने आत्मसात् कर लिया हो, विद्यालय के भवनों पर चरणामृत की सफेदी पहली झलक में अधिकारियों को थोड़ा.बहुत संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। जो कमी रह जाती, वह उपहार, साहब की जीप के लिए तेल और तराई के नवान्न आदि से पूरी हो जाती होगी।
अध्यापकों एवं कर्मचारियों से मिला। धुकधुकी दोनों ओर थी। पिछले विद्यालय में ही कुछ अध्यापकों की कीर्ति सुन चुका था। साथियों ने बार-बार कहा था, निदेशक महोदय से अनुरोध कर किसी दूसरे विद्यालय में नियुक्ति करवा लीजिये, वहाँ का अमुक अध्यापक बड़ा विचित्र, मरने-मारने को तैयार रहने वाला और उपद्रवी है। वहाँ मेरी अपकीर्ति भी पहले ही पहुँच चुकी थी। बड़ा अक्खड़ है, किसी की परवाह नहीं करता, आदि, आदि।
आपस में बैठे तो बातचीत हुई। दोनों को ही लगा, जैसा सुना था वैसा कुछ भी नहीं है। अधिकारी और मातहत नहीं, साहब नहीं, बड़े मास्टर साहब। सामान्य से अपरिहार्य नियम। समय का अनुपालन और छात्रहित सर्वोपरि। अध्यापकों से अधिक अपने पर अनुशासन। दान से लेकर अनुदान तक हर लेनदेन सार्वजनिक। न कोई दुराव न छिपाव। गाड़ी चल पड़ी।
कार्यालय में बैठा। अध्यापकों की कुंडली देखी। हर एक की। स्पष्टीकरणों के आदान-प्रदानों से परिपूर्ण मोटी-मोटी फाइलें। सारे तनाव समझ में आ गये। सोचा, प्रधानाचार्य यदि अध्यापकों की छूत लगने के डर से अपने ही कक्ष में बैठा रहे, केवल आदेश देता रहे, स्पष्टीकरण माँगता रहे, तो समन्वय कैसे होगा। हर समय अफसर बने रहे, तो मनुष्यता के लिए पल दो पल कैसे मिलेंगे? हर समय कुर्सी को सिर पर बिठाये रहे, तो मस्तिष्क को आराम कैसे मिलेगा? ऐसे तो पराये तो पराये, अपने भी पराये हो जाएंगे। खुलापन नहीं होगा तो संदेह और प्रवाद तो बढ़ेंगे ही। तुम चखोगे तो अध्यापकों और कर्मचारियों की भी लार टपकेगी ही। फिर इस रानीबाग एक्सप्रेस में कौन बड़ा कौन छोटा?
सुलेख में सदा फिसड्डी था, अतः लिखा-लिखी से यथासंभव बचने की प्रवृत्ति हावी हो गयी थी। बस, वाणी और नजरों से ही अनुशासन बनाये रखने का अभ्यास सा हो गया। किसी उद्दंड छात्र को वश में करने के लिए उस पर चुपचाप देर तक अपनी दृष्टि की लेजर बीम स्थिर करना ही मुझे कारगर लगता था। यह शैली मेरे एक मित्र और सहकर्मी ब्रह्मप्रकाश गुप्त की देन थी। हम दोनों एक साथ चयनित और एक ही विषय के अध्यापक थे। मुझे प्रायः ध्यान न देने वाले या अनुशासन की उपेक्षा करने वाले छात्रों पर क्रोध आ जाता था, पर वे ऐसे छात्र पर चुपचाप नजर चिपका कर उसे वश में कर लेते थे। पढ़ाते-पढ़ाते, उनके अकस्मात चुप होने से सारी कक्षा को अजीब सा लगता और वे उनकी दृष्टि का अनुकरण करते हुए उसी ओर देखने लगते। अनुशासनहीन छात्र सामूहिक दृष्टि के इस आक्रमण से विचलित होकर स्वयं अनुशासित हो जाता।
प्रथम नियुक्ति और आरंभ के तेरह वर्ष अपने गुरुजनों की छत्रछाया में ही बीते थे। झिड़कियाँ थीं तो दुलार भी था। महाविद्यालय के प्राचार्य छैलबिहारीलाल गुप्त 'राकेश' हमारे उपनिदेशक स्तर के अधिकारी थे, पर कभी भी अधिकारी और अधीनस्थ का बोध ही नहीं हुआ। 'राकेश' जी तो औढर दानी थे। भस्मासुरों को भी वरदान दे बैठते थे। हम लोगों ने उनमें महाविद्यालय के प्रधानाचार्य की अपेक्षा एक स्नेहिल अभिभावक को ही पाया था। महाविद्यालय के भौतिकी के आचार्य और प्रधानाचार्य रहे डा. देवीदत्त पन्त हमारे शिक्षा निदेशक थे। सरल हृदय पन्त जी भक्ति से प्रसन्न होकर बिना सोचे-समझे वरदान देने में पीछे नहीं थे। मैं एक बार अपनी अस्वस्थता की स्थिति में देर रात पन्त जी के शिक्षा निदेशालय, लखनऊ स्थित आवास पर पहुँच गया। लगा ही नहीं कि वे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के अधिपति हैं और मैं एक सामान्य शिक्षक। सेवा निवृत्ति के वर्षों बाद, मृत्यु-शय्या पर भी पद के प्रेत से पल्ला न छुड़ा पाने वाले और अपने सहकर्मी रहे व्यक्ति का परिचय सदा अपने 'सबोर्डिनेट' के रूप में ही देने वाले, श्री हरप्रसाद गुप्त जैसे प्राचार्य मिलने आरंभ हुए, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। परिणाम यह हुआ कि 'पद' मेरे दिमाग पर हावी नहीं हो सका न अफसरों के लिए और न अधीनस्थों के लिए।
पूरे सेवा काल में किसी से साहब तो मैंने कहा ही नहीं। संबोधन में भूले.-बिसरे 'सर' अवश्य कहा होगा। यह छात्र जीवन में अपने अध्यापक के लिए प्रयुक्त होने वाला सामान्य संबोधन था। अधिकारियों में कुछ तो ऐसे भी मिले, जिनके लिए छात्र-निधियों, अनुदानों और यदा.कदा नियमों में भी पलीता लगाना ही सब कुछ था। छात्र भेड़-बकरी थे और अध्यापक ग्वाले। बेइमानी-तरस ऐसे लोग न तो आचरण में 'सर' थे और न बुद्धि में। उच्च अधिकारियों के सामने पानी से पतले हो जाने वाले ऐसे प्राचार्यो के लिए 'सर' कहना भी 'सर' की दुर्दशा करना लगता था।
भारतीय परंपरा में तो अधिकारी और पति दोनों एक ही स्थान पर विराजमान हैं। अतः उसका नाम लेना अथवा जाति नाम से भी संबोधन मर्यादा का उल्लंघन माना जाता है। मेरा यह आचरण प्रधानाचार्यों को ही नहीं, एकान्त में भी पत्नी से या साथियों के बीच आठों प्रहर प्राचार्य-निन्दा से परम सुख प्राप्त करने वाले और प्राचार्य के सामने 'चरण कमल नख रेखति धरनी' वाली मुद्रा में खडे़ रहने वाले साथियों को भी अमर्यादित लगता था। यह नहीं कि वे अन्तःकरण से दासानुदास थे।
विद्यालय के एक प्रधानाचार्य श्री कुद्दूसी एक हद तक बहरे थे। ऊँची आवाज में ही सुन पाते थे। हमारे साथी श्री मुनीन्द्रनाथ पांडे उनके सामने ही हल्की सी आवाज में 'उल्लू का पट्ठा' कहने से भी नहीं चूकते थे। प्रधानाचार्य जी कान लगा कर पूछते - पांडे! आप कुछ कह रहे हैं? पांडे जी का विनम्र उत्तर होता- 'मैं कह रहा था, साहब बहुत कर्मठ हैं'। जो भी हो 'ठ' तो दोनों ही जगह विराजमान था। अधिकारियों की चापलूसी करते ये लोग, सहकर्मियों के बीच भी वर्गवाद पैदा कर, अपने से निचले पायदान पर खडे़ साथी को हेय दृष्टि से देख कर अपने दबे-कुचले मन को सहलाते रहते थे। विद्यालय में अल्पकाल के लिए प्रभारी बनते ही उन्हें प्रधानाचार्यत्व का भूत लग जाता और वे असामान्य हरकतें करने लगते थे।
यह नहीं कि इसमें अपवाद नहीं थे। सेवा के आरंभ में प्रभारी प्रधानाचार्य के रूप में श्री गिरीशचन्द्र पांडे मिले। वर्षों से महाविद्यालय के इंटर अनुभाग के वरिष्ठतम अध्यापक थे। उनकी अभिरुचि संगीत में थी । महाविद्यालय में अध्ययन के दौरान् मैंने उन्हें हर सांस्कृतिक कार्यक्रम को अपनी स्वर.लहरी से गुंजित करते हुए देखा था। उनका व्यवहार उनके संगीत की तरह ही मधुर था। किसी कक्षा में अध्यापक की अवकाश व्यवस्था में शिक्षण के लिए उनके आदेश की भाषा सबसे भिन्न होती थी। वे कहते 'अरे आप थक गये होंगे। अच्छा उक्त कक्षा में, मैं ही हो आता हूँ।' बताइये, इन वयोवृद्ध साथी के संकेतात्मक अनुरोध को टाला जा सकता था? बाद के जीवन में जब भी मुझे ऐसी भूमिका निभाने का अवसर मिला मैंने सदा उनको अपना मार्गदर्शक माना।
इसकी एक बानगी देना उपयुक्त होगा। राजकीय इण्टर कालेज, फूलचैड़ में एक बार स्वाधीनता दिवस के अवसर पर छात्रों को केले बाँटे गये थे। छात्रों ने केले तो खा लिये पर विद्यालय परिसर को केले के छिलकों की चादर से आच्छादित कर दिया। प्रधानाचार्य जी किसी अन्य विद्यालय के समारोह में चले गये थे। मैंने स्वच्छक से परिसर की सफाई करने को कहा। स्वच्छक ने मेरे आदेश की सीधी अवमानना तो नहीं की, पर काम भी नहीं किया। मैंने चुपचाप टोकरी उठाई और परिसर की सफाई करने लगा। बस क्या था, मुझे काम करते देख स्वच्छक ही नहीं सभी परिचारक, लिपिक और अध्यापक भी सफाई में जुट गये। इसके बाद जब तक मैं उस विद्यालय में रहा मुझे कभी भी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। पांडे जी स्वर्ग चले गये हैं, पर उनके शब्द 'अरे! त्याड़ज्यू! तुम थकि गो हुनेला, क्लास में मेइ जै ऊन ( अरे! त्रिपाठी जी! आप थक गये होंगे, कक्षा में मैं ही हो आता हूँ।) सेवा भर ही नहीं आज भी मेरे कानों में गूँजता रहता है।
मैं देखता था साथी कुर्सी पर बैठते ही गाँव की रामलीला के रावण की तरह 'मंत्री! 'नाचने वाली को बुलाओ' वाली मुद्रा में आ जाते हैं। लगता था कि कहीं प्रधानाचार्य की कुर्सी अभिशप्त तो नहीं है? शायद इसीलिए उस पर बैठते ही अध्यापक असहज हो जाते हैं। यह, संभवतः वर्षों से झुके सिर और पिटे कुत्ते की सी दयनीय मुद्रा से एक बारगी निकल आने का और उसे व्याज सहित वसूलने की इच्छा का परिणाम होता होगा।
अध्यापकों की इस बीमारी का एक कारण आसपास खा.-खा कर मुटियाते बाबुओं और अन्य विभागों के कर्मचारियों की तुलना में आर्थिक प्रगति में बहुत पीछे रह जाना और विद्यालय के कार्यालय में भी उपेक्षा होना था। यह स्थिति इन छोटे अध्यापकों की ही नहीं थी, प्रथम श्रेणी के राज्यस्तरीय अधिकारी माने जाने वाले, और अपनी मुहर में पी.ई.एस. क्लास वन खुदवाना अनिवार्य समझने वाले राजकीय महाविद्यालय के आचार्यों की भी थी। उन्हें अपने वेतन बिल बनवाने के लिए, न केवल घंटों बड़े बाबू की चिरौरी करनी पड़ती थी अपितु, उनके बच्चों की अनुशासन हीनता की उपेक्षा करना और उनकी प्रथम श्रेणी के लिए प्रयास करना भी आवश्यक था। शनिदान की आवाज लगाने वाले भिक्षुक की एक ही पुकार पर लोग भले ही बाहर न निकलें, उनके एक इशारे पर.......
मैं बार.-बार सोचता यदि रामलीला में राम का अभिनय करने वाला व्यक्ति मंच से बाहर भी राम जैसी हरकत करेगा तो कैसा लगेगा? विद्यालय प्रशासन भी मेरे लिए एक रामलीला ही था। रामलीला में यदि बेटा राजा बने और पिता मंत्री, तो राजा के पुकारने पर मंत्री को 'जो आज्ञा राजन्!' तो कहना ही पडे़गा। यदि घर में भी बेटा अपने पिता को मंत्री! कहने लगे तो....। इसलिए मैं विद्यालय से बाहर निकलने से पूर्व प्रधानाचार्य का चोला उनकी कुर्सी पर ही छोड़ आता था।
साथियों से एक चाय-क्लब बनाने का अनुरोध किया। मध्यान्तर में प्राचार्य से लेकर स्वच्छक तक एक साथ बैठ कर जलपान करते थे और विद्यालय की समस्याओं पर विचार-विमर्श करते थे। परिचारक भी क्लब में सामान्य सदस्य की तरह बैठें, यह अध्यापकों को अजीब सा लगता था। उनके विचार से प्राचार्य के सामने परिचारकों को बैठना नहीं चाहिए। यदि बैठना ही हो, तो जमीन पर बैठें। फिर प्रधानाचार्य के लिए तो कुर्सी भी गद्दीदार होनी चाहिए।
चाय-क्लब में आते समय भी मैं 'प्रधानाचार्य' को उनकी कुर्सी पर ही छोड़ आता था और एक सहज पारिवारिक परिवेश बनाने का प्रयास करता। आरंभ में यह प्रयास साथियों को कुछ अजीब सा लगा पर धीरे.-धीरे आत्मीयता विकसित हुई और उन अध्यापकों ने, जिनकी कीर्ति महाउपद्रवी और बवाली के रूप में मेरे पास पहुँची थी, कालान्तर में मुझे सबसे अधिक सहयोग दिया।
अपने प्रथम प्रधानाचार्य डा. इन्द्रकृष्ण गंजू के व्यवहार से मैंने सीखा था कि प्रबंधक को अपनी टीम के प्रत्येक सहकर्मी के दोषों की छानबीन करने की अपेक्षा उनकी विशिष्ट प्रतिभा को समझने और उसे उभारने का प्रयास करना चाहिए। विद्यालय में हर शिक्षक शिक्षण.कला में माहिर नहीं होता। ज्ञान और छात्रों को अनुशासित रखने के मामले में भी भिन्नता होती ही है, पर विद्यालय के लिए दूसरे प्रकार से उनका सहयोग लिया जा सकता है। यहाँ पर उक्त विद्यालय का एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा।
विद्यालय के एक अध्यापक श्री सतीश पांडे बडे़ अक्खड़ स्वभाव के थे। प्राचार्य और साथियों से कब उनका विवाद हो जाय, इसका अनुमान लगाना कठिन था। सही ढंग से अध्यापन का अनुरोध करने पर एक बार वे मुझसे भी उलझ चुके थे। संभवतः उनका पूर्व परिवेश और मन ही मन पदोन्नति में पिछड़ जाने का असंतोष भी इसका कारण था।
विद्यालय के अभिभावक.अध्यापक समिति के अध्यक्ष, समिति के कोष को उसी प्रकार हजम करने के प्रयास में थे, जैसे वे ग्राम सभापति रूप में करने के आदी थे। लगातार अनुरोध करने पर भी अभिभावक समिति का धन वापस करने के लिए तैयार नहीं थे। मैंने सतीश से कहा यह काम तुम्हें ही करना है, पर शान्तिपूर्वक। दबंग अध्यापक के रूप ख्यात सतीश जी ने जो तरीका निकाला, उससे एक सप्ताह के भीतर अध्यक्ष जी स्वयं विद्यालय आकर धनराशि जमा कर गये।
मैंने सतीश से पूछा, यह तकनीक मुझे भी बता दो। सतीश ने बताया कि वह नित्य सुबह आठ और नौ बजे के बीच अध्यक्ष जी की बैठक में पसर जाते हैं और वहाँ बैठे लोगों के बीच केवल यही पूछते हैं कि "प्रधानाचार्य जी पूछ रहे थे कि आप विद्यालय का धन कब वापस कर रहे हैं?" इस तथाकथित बवाली अध्यापक के शालीन प्रश्न से अपनी प्रतिष्ठा बचाने का अध्यक्ष जी के पास और क्या उपाय हो सकता था?
सतीश की अक्खड़ प्रवृत्ति का एक लाभ मैंने और उठाया। विद्यालय के गलितांग स्वच्छक बाबूलाल के स्थान पर अवकाशकालीन रिक्ति में उसका भतीजा काम कर रहा था। बाबूलाल को उसकी पत्नी महीने में एक बार रिक्शे से विद्यालय लाती थी। भतीजा और परिचारक मिल कर उसे रिक्शे से उतारते थे। अभिलेखों के अनुसार उसके सेवा निवृत्ति में अभी चार साल शेष थे। इस बीच उसे स्वस्थता प्रमाणपत्र मिलना भी दूभर हो गया था। मैंने यह उत्तरदायित्व भी सतीश को दिया। फल यह हुआ कि उनके प्रयास से बाबूलाल को महीने के प्रथम सप्ताह में अस्वस्थता प्रमाणपत्र और मासान्त में स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र छः माह तक मिलता रहा और उसके स्थान पर उसका भतीजा काम करता रहा।
बाबूलाल निःसन्तान था। पत्नी 75 वर्ष से कम नहीं थी। केवल भतीजा ही उनकी देख-रेख कर रहा था। मैंने सतीश से कहा कि बाबूलाल से कहो कि वह अपने भतीजे को गोद लेकर इस आशय का विधिक प्रमाणपत्र कार्यालय में जमा करवाये। सतीश के प्रयासों से यह संभव हुआ। जिस दिन मैं पदोन्नति पर राजकीय इण्टर कालेज, भनोली के लिए प्रस्थान करने वाला था, उसी दिन प्रातः बाबूलाल चल बसा। उसके स्थान पर उसके भतीजे को स्थायी नियुक्ति मिल गयी तथा अनुग्रह राशि और पेंशन उसकी पत्नी को। यह सब अक्खड़ सतीश के प्रयासों से ही संभव हुआ।
विद्यालय के एक और अध्यापक हरिओम मेरे पूर्ववर्ती प्रधानाचार्य के लिए 'आँखिन में सखि राखिबे जोग' तो नहीं, 'चोखेर बाली' अवश्य रहे थे। हरिओम जी की व्यक्तिगत पंजी दोनों के बीच रार और तकरार को पचाते-पचाते बहुत मुटिया गयी थी।
हरिओम जी स्थानीय थे और पिछले कई वर्ष से विद्यालय में कार्यरत थे। लोगों और परिस्थितियों पर उनकी पकड़ अच्छी थी। वे अच्छे कलाकार भी थे। मुझे लगा कि उनकी कला की प्रशंसा करने और उत्तरदायित्व सौंपने पर वे विद्यालय के लिए अधिक उपयोगी हो सकते थे। यह कला भी मैंने महाविद्यालय में अपने इतिहास के आचार्य और प्रभारी प्राचार्य डा. इन्द्रकृष्ण गंजू से सीखी थी। वे अकेले में भले ही हमें झिड़क लें, पर सार्वजनिक रूप से प्रशंसा करने में कंजूसी नहीं करते थे। फलतः उनकी झिड़कियों में भी गुरु की भूमिका नजर आती थी।
हरिओम जी की परिस्थिति भिन्न थी। पूर्व प्राचार्य उनका सहयोग तो लेते थे पर वित्तीय अनुदानों पर हाथ साफ करते समय उन्हें भूल जाते थे। परिश्रम और व्यवस्था वह करें, फलप्राप्ति केवल प्रधानाचार्य को ही हो, यह विडंबना उनमें असंतोष पैदा करती थी।
मैंने भी विद्यालय में किए जाने वाले निर्माण कार्यों का उत्तरदायित्व उन्हें सौंप दिया। अनुदान की राशि से बढि़या से बढि़या काम कराने का अनुरोध किया। हरिओम जी के सहयोग से पूर्व प्राचार्य के जमाने के बराबर प्राप्त अनुदान से ही उनके कार्यकाल में निर्मित कक्ष से दूने आकार का और अपेक्षाकृत सुदृ़ढ़ और सुविधाजनक कक्ष तैयार हो गया।
एक दिन हरिओम जी मेरे पास आये। कहा कि अनुदान की राशि में से एक हजार रुपये के लगभग बच गये हैं। मैंने उनसे कहा, 'यह आपके प्रयासों का पारिश्रमिक है, इसे आप रख लें!'
शाम को हरिओम जी फिर मेरे पास आये। कहने लगे 'साहब! मैं आपसे झूठ बोला। बचत दो हजार दो सौ के लगभग है।' मैंने कहा 'आपने जिस अनुदान से इतना बड़ा कक्ष बनवाया इतने में किसी भी अन्य विद्यालय में बन पायेगा, संभव नहीं लगता। जो भी बचत है वह आपका पुरस्कार है।'
हरिओम जी ने इसके बाद विद्यालय के अलंकरण, छात्रों से विभिन्न प्रकार की कलात्मक वस्तुएं बनवाने में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके प्रयास से कुछ ही दिनों में विद्यालय का परिवेश ही बदल गया। मैं उक्त विद्यालय में केवल एक वर्ष रहा पर आज चैबीस वर्ष बाद भी हमारी आत्मीयता बनी हुई है। क्रमश: ( मेरी पुस्तक ग्यारह वर्ष- से)
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